Saturday, December 20, 2008

कुछ अहसास...



" कुछ अहसास ओस की बूंदो के जैसे
करते है रुह को ताजा ...


कुछ अहसास ठंडी हवा की तरह
देते हैं मन की अगन को सुकून...


कुछ अहसास भीगे होठों की तरह
भरते हैं बंजर जमी में नमी...


कुछ अहसास प्रेम की बूँदों के जैसे
आंखों से बहने से पहले संभल जाते हैं...


गिर के जमी पर होगी उनकी रुसवाई
इसलिए आँखों में इन मोतियों को छुपा लेती हूँ।।"


(इन अहसासों को मन के कंदराओं में कहीं छिपा कर रखा है..लेकिन लाख छिपाने के बाद भी ये अहसास मेरे चेहरे की मुस्कुराहट में झलक जाते हैं...)

Monday, December 15, 2008

महाशक्ति को जूता !


" बुश साहब बेज्जती के जो सपने हम बगदादियों को चैन की नींद सोने नहीं देते जूते के रूप में ऐसे ही सपने तुम्हें भी मुबारक हो "

गुस्सा, नफरत, भय और भयावह रुदन के बीच रोज मरती आत्मा। सपनों में, हकीकत में खुद को धिक्कारती...बार-बार अहसास दिलाती कि आत्मसम्मान के बिना जिए जाने वाली जिंदगी मौत से बत्तर है। आईना देखने का मन न होता..देख लो तो नजरे खुद अपना चेहरा निहारने से मना कर देती....सिर से पाँव तक आहत और शर्मिंदा वजूद.......( बगदाद के हर युवा की यही कहानी है)

युवा पत्रकार मुंतजर-अल-जैदी द्वारा बुश पर जूता फेंकने की घटना ने एक बार फिर बगदाद के रिसते घाव को दुनिया के सामने ला दिया है। मैं बगदाद में सद्दाम की तानाशाही को जायज नहीं ठहराती...लेकिन बुश के हाथों चल रही अमेरिकी सत्ता ने जो किया क्या वो जायज था ? अमरिकी सरकार का आरोप था कि बगदाद में जैविक हथियार हैं। यह अलग बात है कि अभी तक अमेरिका को जैविक हथियारों के जखीरे के नाम पर कुछ नहीं मिला। तेल के कुओं पर आधिपत्य की तानाशाही सोच ने एक मुल्क को बरबाद कर दिया। बुश पर जूते फेंकने वाले मुंतजर-अल-जैदी ने अपनी जान की परवाह किए बिना बगदाद के युवाओं की भावनाएँ व्यक्त कर दीं- उसने कहा " जूते इराक की विधवाओं और अनाथों की ओर से है "

" किसी की आत्मा पर निशाना साधना हो तो उसे गोली नहीं जूते मारो। " शायद यह युवा पत्रकार भी पूरे देश की बेज्जती का बदला लेना चाहता था। शायद उसकी छटपटाती आत्मा बुश की बेज्जती करके अपने राष्ट्र की बेज्जती का बदला लेना चाहती थी।

आँख बंद करके एक ऐसे देश की कल्पना करके देखिए जिसके सीने पर दूसरे मुल्क की फौजें कदमताल कर रही हों...जहाँ आतंक का तांडव चल रहा हो। सद्दाम की तानाशाही को खत्म करने के लिए अमेरिका ने एक पूरे राष्ट्र को ही नेस्तोनाबूत कर डाला। जो लोग जिंदगी जी रहे थे वे अब घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर हो गए। अब अमेरिका यदि इस मुल्क पर से अपना आधिप्तय समाप्त करने की घोषणा भी कर दे ( सच तो यह है कि आर्थिक मंदी से उबरने के लिए सेना को हटाया जाना आज महाशक्ति की मजबूरी है) तब भी बगदाद ने जो खोया है वह उसे कोई वापस नहीं लौटा सकता। बगदाद की महिलाओं और बच्चों का करूण रूदन हर बगदादी को मौत से बत्तर जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर रहा है।

बगदाद का यही गुस्सा युवा पत्रकार के जूते में दिखाई देता है जैसे जूता खुद चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा हो- " बुश साहब बेज्जती के जो सपने हम बगदादियों को चैन की नींद सोने नहीं देते मेरे रूप में ऐसे ही सपने तुम्हें भी मुबारक हो "

और सच में महाशक्ति के मुँह पर पड़ा यह जूता भले ही अपना निशाना चूक गया हो लेकिन मुंतजर के जूते के रूप में बगदाद के आक्रोश का निशाना सही जगह लगा है। बिना आवाज की यह मार महाशक्ति को हमेशा बताती रहेगी कि " तुम्हारी इज्जत की ही तरह हमारी और हमारे राष्ट्र की इज्जत भी अमूल्य है। "

नारी सिर्फ देह नहीं...


कल रात चैनल सर्फ करते हुए निगाहें कलर्स पर टिक गईं। डॉसिंग क्वीन करके एक और रियलिटी शो आ रहा था...कजिन जिद्द करने लगी। दीदी न्यूज छोड़ों, दिन भर सीरियल चलता रहा...फिर न्यूज अब तो कुछ लाइट देखने दो। पुराने दिनों की तरह कजिन के साथ मस्ती करने लगी....एकाएक मैंटोर का डाँस खत्म हो उनकी स्टूडेंट्स बनने वाली लड़कियों के नाम सामने आना शुरू हुए और यह क्या...पहली बार किसी डॉस शो में बीयरबाला सामने आई....मैरी पुतलियाँ फैलने लगी। बारबाला का स्टेज तक पहुँचना बेहद सुखद लगा...बारबाला बनने के पीछे की मजबूरी ने कोर भिगा दी लेकिन बार बाला से ज्यादा अभिभूत हुई भूमिका से।

सफेद दाग (ल्यूकोडर्मा) से जूझ रही भूमि...जिसे अपनो ने जलाया था...फिर इंजेक्शन के रिएक्शन से आधे शरीर पर सफेद दाग हो गए....भूमि अपनी दास्तां सुना रही थी। दर्शकों को अपने सफेद दाग दिखाने के बाद भूमिका प्रापर मेकअप में सामने आई। पूरे आत्मविश्वास से नृत्य किया...हेमा मालिनी, जीतेंद्र जैसे वरिष्ठ कलाकारों के साथ सभी ने खड़े होकर उसका अभिवादन किया।

आज मैं इसी आत्मविश्वासी लड़की के नजरिए से कहना चाहती हूँ नारी सिर्फ देह नहीं....पुरूष किसी भी देश-काल और युग में नारी को उसकी देह से इतर नहीं देखता। भूमिका की बदरंग देह पुरूष को आकर्षित नहीं करती...लेकिन उसका आत्मविश्वास अच्छे-अच्छे पुरूषों का मान हिलाने के लिए काफी है। भूमिका की बदरंग देह में आत्मविश्वास का खूबसूरत रंग भरा है उसकी माँ ने ...जो अपनी बेटी को कहती है वो खूबसूरत है । उसकी आधी फिरंग है और एक बदसूरत लड़की में आत्मविश्वास के बीज बोती रहीं।

अपने आस-पास के माहौल में देखा है लड़की सुंदर है तो माँ-पिता को शादी की चिंता नहीं। पति अपनी खूबसूरत पत्नि पर इतराता है। वहीं नारी अपनी देह की खूबसूरती को गलत नजरों से बचाती नजर आती है। इन विशलेषणों का अर्थ यह है कि आसपास का माहौल ही उसे समझा देता है कि वह लड़की है, एक खूबसूरत शरीर...लेकिन क्या नारी सिर्फ देह है? उसकी आत्मा नहीं। अभी चोखेर बाली पर "मुझे चाँद चाहिए" फिर घूघूती बासूती जी के ब्लाग पर "इन्हें चाँद चाहिए>" पर खासा विचारविमर्श हुआ। पक्ष-विपक्ष में कई बातें रखी गई। यह विषय किसी भी आगे बढ़ रही नारी को झकझोर देता है क्योंकि नारी को देह से इतर देखा नहीं जाता। हर नारी की तरक्की को उसकी देह से जोड़ दिया जाता है। वह पुरूषों से ज्यादा काम करें...चौबीस घंटे सिर्फ काम करती रहे...उस पर तरक्की करे तो भी कहीं खुले स्वरों में तो कहीं दबे छिपे इस तरक्की को देह से जोड़ दिया जाता है।

लेकिन अब हमें सोच के अपने दायरे बदलने होंगे...नारी सिर्फ देह नहीं है। शरीर से इतर उसका दिमाग है, भावनाएँ हैं सबसे बढ़कर कुछ कर दिखाने का माद्दा है। उसके इस माद्दे की इज्जत करनी होगी और सबसे पहले इस सोच को हम स्त्रियों को ही बदलना होगा। अपनी बच्चियों को बताना होगा कि वे कमनीय देह से इतर भी कुछ हैं। नारी सिर्फ देह नहीं है उसका अपना वजूद है, अस्तित्व है। जिसकी उसे इज्जत करनी होगी और दूसरों से करवानी भी होगी।

Saturday, December 6, 2008

मोशे तुमसे मैं क्या कहूँ.......

"मम्मी तुम मुझे छोड़कर क्यों चली गई? प्लीज, जल्दी वापस आ जाओ.........वरना मैं भी तुमकों छोड़कर चला जाऊँगा।"

प्यार, मुनहार और धमकी मिले यह वाक्य मेरे नन्हें उस्ताद के हैं.......मेरे बेटे के। चौथे वसंत में कदम रखने के लिए उतावले हो रहे आयुष के वाक्यांश भी उनकी ही तरह तेजी से बड़े हो रहे हैं। अब उन्हें समझ में आने लगा है कि मम्मी ऑफिस के काम से बाहर जाती हैं और मम्मी का खुद से दूर होना उसे बिलकुल पसंद नहीं...इसलिए वे इस बात को जताने से कभी चूकते नहीं...। जब भी वे मुझे ऐसी धमकी देते हैं मैं उन्हें मनाती हूँ, समझाती हूँ माँ को काम है । बस अभी आती हूँ...चिंता मत करो। देर रात हो जाए तो दिलासा देती हूँ, आँखे बंद करो- जब खोलोगे मैं तुम्हारे सामने रहूँगीं.......लेकिन मोशे मैं तुमसे क्या कहूँ?


आप सोच रहे होंगे मोशे के जिक्र में आयुष की चर्चा क्यों? इसलिए कि पिछले एक हफ्ते से मुझे आयुष में मोशे और मोशे में आयुष नजर आ रहे हैं। अभी कुछ दिन ही तो हुए हैं...रोता हुआ मोशे या हर गम से अनिभिज्ञ मुस्कुराता हुआ मोशे नरीमन हाऊस में घटे हादसे का चेहरा बन चुका है। हर चैनल मोशे के बहाने मुंबई का दर्द दिखा रहा है, उस रात भी चैनलों पर नन्हा मोशे छाया था। मैं आयुष को खाना खिला रही थी कि मोशे की गमगीन मुद्रा को टीवी पर देख आयुष बोल उठा ...मम्मी देखो, बेबी रो रहा है। फिर खुद से ही प्रश्न किया...बेबी क्यों रो रहा है। नादान ने तुरंत प्रतिउत्तर भी दे दिया...इसकी मम्मी ऑफिस गई होगी!

आयुष ने तो नादानी में कह दिया मम्मी ऑफिस गई होगी? शायद मन ही मन तसल्ली भी कर ली होगी कि उसकी मम्मी की ही तरह मोशे की मम्मी भी ऑफिस से वापस आ जाएगी और रोते मोशे को चुपा लेगी लेकिन ..... आज मोशे दर्द का एक चेहरा है " मुस्कुराता चेहरा।" कितनी प्यारी और दिलकश है उसकी मुस्कान लेकिन ये मुस्कुराहट याद दिलाती है हैवानियत को। जिसने एक मासूम से उसके जन्मदिन के दिन ही माँ का साया छीन लिया। मोशे के अंतहीन रुदन के बाद आयुष मुझे मम्मा या मम्मी कहता है तो दिल में कसक उठती हैं। नन्हें मोशे की गुलाबी अंगुलियाँ भी तो माँ का आँचल ढ़ूढती होगीं। अकसर ऑफिस से लौटते हुए आयुष के लिए गुब्बारा या गेंद खरीदती हूँ...हरी, पीली, नीली खासकर लाल। बच्चों को चटख लाल रंग बेहद पसंद है। अफसोस! खून का रंग भी लाल ही होता है। मोशे का पजामा भी अपनो के दर्द से लाल ही हुआ था।
तस्वीरों में मोशे के हाथों में भी गेंद देखी थी, गेंद का नारंगी रंग भी उसके रोते चेहरे के सामने लाल नजर आ रहा था। प्रार्थनाघर में हाथ में गुब्बारा था। हे भगवान! उसका रंग सचमुच लाल ही था...तब से लेकर अब तक आयुष के लिए गुब्बारा या गेंद खरीदने का साहस नहीं जुटा पाई।

मुंबई के हादसे के बाद मेरे अंदर की माँ को अजीब सा डर सताता है। उन भयावह रातों के बाद अब अकसर रात को उठकर आयुष का चेहरा निहारती हूँ। डर लगता है...नींद मैं भी मुझे पहचान जाने वाले आयुष क्या मेरे बिना जी सकेगें। यह कल्पना ही डरा जाती है। मैं एक माँ हूँ , मोशे के लिए कुछ लिखना चाहती हूँ लेकिन कलम और दिमाग साथ छोड़ देते हैं.....आँखे झलक जाती हैं...बस इतना ही कह सकती हूँ कि

"मासूम मोशे तुझे मैं क्या कहूँ? तुझमें मुझे मेरा मासूम दिखता है। जन्नत में बैठी तुम्हारी माँ की आँखों में आसुओं का दरिया होगा। अपनी माँ की आँख के तारे हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया की हर माँ की आँखे नम है। तुम्हारी मासूम मुस्कुराहट के लिए कर रहीं हैं दुआ.....और मुझे विश्वास है कि टीवी पर तुम्हारा कभी रोता कभी मुस्कुराता चेहरा देखकर उस माँ की भी आँखें भीगी होंगी जिसकी कोख से जन्में हैवान ने तुम्हें तुम्हारी माँ से दूर किया है......"
भगवान तुम्हें तुम्हारी महान आया के आँचल में हमेशा यूँ ही मुस्कुराता रखें जैसा तुम मुझे हिंदुस्तान छोड़ते समय टीवी पर दिखाई दिये थे।

आमीन...

Sunday, November 30, 2008

रात अभी बाकी है.....

गहन अंधेरा है
उजास नजर आता नहीं
हर तरफ कुहासा है
क्योंकि रात अभी बाकी है....

ताज पर फिर फहरा गया तिरंगा
लेकिन जमीं पर बिखरा खून अभी बाकी है
शर्मिंदा है जमीर, माँ की नहीं कर पाया रक्षा
हर सिर है झुका क्योंकि रात अभी बाकी है....

उजाले के लग रहे हैं कयास
पर भूलों मत रात अभी बाकी है
गुस्से से भिच रही हैं मुट्ठियाँ
चढ़ रही हैं त्योरियाँ....

बच्चों की मासूम मुस्कुराहट के बीच
माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें बाकी हैं
उठो खड़े हो और लड़ों क्योंकि रात अभी बाकी है
रोशनी की चंद किरणों को समेटों और हुंकार भरो....

माँ के सपूतों उठों, दानवों से लड़ों
रुदन और क्रंदन के बीच कहो
हमने हार नहीं मानी है इसलिए कहते हैं कि
रात अभी बाकी है लेकिन भोर होने वाली है ।

(किसी ने कहा, कानों ने सुना, न जाने क्या हुआ...बस मन किया और की बोर्ड पर अंगुलियाँ चल गईं
और एक कच्ची-पक्की कविता या कहें काफिया लेकिन सच्ची भावनाएँ आकार ले गई। मनोभाव कुछ मासूमों के हैं जिनमें बहुत कांट-छांट करना मुझे गवारा नहीं लगा। )

Saturday, November 29, 2008

एक पाती भईया राज के नाम...

राज ठाकरे जी कदाचित नाराज होंगे....मैंने उन्हें उत्तर भारतियों की तरह भईया जो कह दिया। क्या करूँ, रहती मध्यप्रदेश में हूँ लेकिन दोस्त पूरे देश में फैले हैं...तो भईया राज आप कौन सी कुंभकर्णी नींद में सोए हो। मुंबई जल रही है लेकिन आप नजर नहीं आए। क्यों घर में दुबके रहे। हम इंदौर में रहते हैं। हमारे इंदौर को माँ अहिल्या के नाम से जाना जाता है इसकी पहचान इंदूर के रूप में थी। यदि आप यहाँ होते तो मिनी मुंबई कहलाने वाले इंदौर की तरक्की की जगह इंदौर को इंदूर बनाने में तुले रहते। हमारे धर्मनिरपेक्ष कुटुंब में सासू माँ महाराष्ट्रियन हैं...वे आपसे खासी खफा हैं। वे हमेशा कहती हैं आप देश बाँट रहे हैं...जहाँ चार बर्तन हो खटकते हैं लेकिन बर्तन बाहर फेंक दिए जाएँ तो रसोई कैसे बनेगी। हमारे परिचितों के घर होने वाली महाराष्ट्रियन संगोष्ठी में भी आपको आपकी नीतियों को कोसा जाता है।


कल ऐसी ही एक संगोष्टी हमारे घर में थी जिसमें मुंबई में शहीद सभी देशभक्तों को श्रद्धांजली दी गई। श्रद्धांजली में 85 वर्षीय बुजुर्ग दंपत्ति जिन्हें हम प्यार से आत्या और आतोबा भी शामिल थे। हम तो कुछ ही देर के लिए वहाँ जा सके लेकिन जो देखा-सुना वो आप तक पहुँचा रहे हैं। आतोबा अपने धीमें स्वरों में बड़बड़ा ( आप जैसे नौजवान यही कहेंगे) रहे थे '' अरे, राज ठाकरे कहाँ हैं, उसे नींद से जगाओं। मुंबई से उत्तर भारतियों को निकालने में, बेकसूर छात्रों की पिटाई करने में तो बेहद आगे थे। लेकिन अब जब आमची मुंबई के सम्मान पर हमला किया जा रहा है तब वे कहाँ छिपे हैं। ठीक है, आतंकियों से मुकाबला नहीं कर सकते लेकिन बाहर से ही सही कम से कम सेना के जवानों और कमांडों को भोजन-पानी ही पहुँचा देते। सड़क पर निकलकर मुंबई वासियों को विश्वास ही दिला देते कि मुसीबत के समय में उनका नेता उनके साथ हैं।''


वहीं आत्या आशा मोघे जो खुद रिटायर्ड प्रिसंपल रही हैं ठेठ मराठी में बोली मैं हिंदी मे अनुवाद लिख रही हूँ '' यदि मेरा राज जैसा बेटा होता तो अहिल्या माँ की तरह हाथी के पाँव के नीचे कुचलवा देती। नाकारा आज मुंबई को उसकी जरूरत है। वो ये क्यों भूल रहा है कि आज मुंबई की रक्षा सेना कर रही है। जिसमें हर धर्म के लोग हैं। शहीद होने वाले जाँबाजों में भी हर धर्म के लोग हैं'' , तो भईया राज अब आप बताओं आपके पास हमारे आत्या-आतोबा के सवालों के कुछ जवाब है।


हम तो यहीं कहेंगे कि यह हादसा आपको सबक सिखा जाएँ। आप हमारे भारत को बाँटने का काम छोड़े और अब उत्तरभारतियों नहीं बल्कि आतंकवादियों के खिलाफ मुहिम छेडे़..मानती हूँ आप जैसे राजनीतिज्ञ से उम्मीद ज्यादा कर रही हूँ लेकिन जानती हूँ उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है।

Thursday, November 27, 2008

आतंक के दानव का सिर कुचल दो

कल रात से नींद आखों से गायब है...पूरी रात चैनल बदलने, मुंबई के हालातों की पल-पल की खबर देखनें में बीती। चैनल बदलते हुए बैचेनी बहुत थी। बैचेनी के दो कारण थे एक ये कि आखिर क्यों बार-बार हमारे ही देश को निशाना बनाया जा रहा है? दूसरा यह कि जब मेरे पति, जो इस समय ब्रिटेन के एक अस्पताल में डॉक्टर हैं, मुंबई के हालात टीवी पर देखने के बाद हालचाल जानने के लिए मुझे फोन करते हैं। तब हमारे एक ब्रिटिश दोस्त मुझे संवेदना जताते हुए कहते हैं - " कम बैक, योर कंट्री इज इन डेंजर...वॉय यू वांट टू लिव इन इंडिया...इट्स नॉट ए प्लेस फॉर लीविंग" और हर बार की तरह मैं जॉन को भारत की खासियत गिना नहीं पाईं। उसे भारतदर्शन का न्यौता दे नहीं पाईं।

मैं निरूत्तर थी, क्योंकि पहले धरती के स्वर्ग को दहलाया जाता था...असम को जलाया जाता था...फिर आई संसद की बारी। उसके बाद तो निर्लज्ज आतंकियों की कुत्सित गतिविधियों से पूरा देश थर्रा गया। कभी मुंबई की लोकल को निशाना बनाया गया तो कभी समझौता एक्सप्रेस को। उसके बाद अजमेर, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर, दिल्ली और मुंबई...दिल्ली के कनॉट प्लेस में हुए धमाके बता गए कि अब आतंकवादियों के हौंसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि वे भारत के उच्च मध्यम वर्ग को निशाना बना सकते हैं। कल मुंबई के ताज पर हुआ हमला अभिजात्य वर्ग पर निशाना था। मानो ये आतंकी अट्टाहास कर रहे हों, बच सकते हो तो बचो तुम अपने देश में कहीं भी महफूज नहीं हो....चाहे गरीब हो या अमीर..देशी हो या विदेशी तुम हमारे निशाने पर हो। अब वक्त है इस अट्टाहास के समूल विनाश का। लेकिन यक्ष प्रश्न है - " क्या हमारी सरकार चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, अब होश में आएँगी।" आज ब्रिटिश क्रिकेट टीम वापस जाने की कवायद कर रही है। मैं किस मुँह से जॉनेथन को कहती कि मैं नहीं तुम अपना बोरिया-बिस्तर बाँधों और भारत चले आओं। मैं तुम्हें अपनी नजरों से अपना हिंदोस्तां दिखाऊँगीं। तरक्की के नए सोपान चढ़ता इंडिया ! जॉन की वाइफ कैथी को इंडिया अपील करता है लेकिन कल वो भी आशंकित नजर आई । ताज के गुंबद को जलता देख स्तब्ध कैथी " कम बैक डियर" बस यही कह पाई।

मैं भारत के दिल मध्यप्रदेश में सुरक्षित हूँ लेकिन खुद से ही पूछ बैठती हूँ कब तक...तब तक ही न जब तक आतंकवादी मेरे शांत मालवा को निशाना नहीं बना लेते। कल जिस तरह एटीएस के जांबाजों को निशाना बनाया गया ...निर्दोषों की मौत का आकड़ा सैकड़ा पार कर गया। क्या उसे देखकर सरकारी तंत्र का सिर शर्म से नहीं झुकता। आखिर क्यों हम इतने नपुंसक हो गए हैं? बार-बार आतंकी हमले झेलने के बाद हमारी सरकारें जिम्मेदारी को गेंद की तरह एक दूसरे के पाले में क्यों फेंकती नजर आती हैं। क्यों नहीं हम उठ खड़े होते ...एक दूसरे से हाथ थामते हुए इस आतंक के दानव का सिर कुचलने के लिए।

मुझे याद है जब मैं छोटी थी तब काश्मीर में हल्का सा विस्फोट भी चर्चा का विषय था...लोगों की आँखे नम होती थीं...आज बड़ी सी बड़ी घटना आँखों को नम नहीं करती। हमारे तंत्र की इसी विफलता के कारण आतंकियों का दुस्साहस बढ़ गया है। पहले ये दबे-छिपे विस्फोट करते थे अब खुलेआम मुंबई की आबरू पर हमला करते हैं। एक दो नहीं बल्कि कई जगहों पर बैखोफ आतंकी मशीनगनों और हथगोलों के साथ खुलेआम नरसंहार करते हैं...और अपनों को खोती, छलनी होती बेबस जनता अपने कर्णधार नेताओं की तरफ रूंधे गले और गीली आँखों से टकटकी लगाए देखती रहती हैं।

लेकिन अब नहीं, हम आम भारतीय को भी इस बेबसी की खोल से बाहर निकलना होगा। अभी वक्त है यदि हम एक न हुए और एक होकर आतंक के इस दानव का सिर कुचलने के लिए तैयार न हुए तो फिर वक्त हाथ से निकल जाएगा। हम कभी गर्व से नहीं कह पाएँगें कि हम भारत माँ के सपूत हैं...हम भारतीय हैं...मैं आज भी जोनेथन और कैथी में विश्वास जगाना चाहती हूँ कि भारत खूबसूरत है! सुरक्षित है ! यहाँ आओ, मैं तुम्हें गंगा के घाट दिखाऊँगी, रंगीला राजस्थान घुमाऊँगी, आगरा का ताजमहल तुम्हारा इंतजार कर रहा है, ऊँटी के चायबागानों में काम करने वाले भोले-भाले लोगों से मिलवाऊँगीं, मालवा की काली मिट्टी से रूबरू कराऊँगी...हैसियत नहीं है लेकिन बाहर से ही सही अपने वैभव पर इठलाता मुंबई की शान होटल ताज दिखाऊँगी।

हाँ मैं उन दोनों को भारत बुलाना चाहती हूँ....लेकिन उन्हें बुलावा देने से पहले हमें समूचे तंत्र को झंझोड़ना होगा। अपने खूफिया तंत्र और नाकारी सरकार को कुंभकर्णी नींद से जगाना होगा। आतंकियों के जेहन में भायवह डर पैदा करना होगा...उन्हें अपने बुलंद इरादों से इतना डराना होगा कि वे फिर हमारे देश की अस्मिता की तरफ सिर उठाकर न देख सकें। जी हाँ अब हमें अपने तंत्र को मजबूर करना होगा, हौसलों को बुलंद करना होगा...और उठ खड़े हो आतंक के इस दानव का सिर कुचलना होगा...आमीन

Wednesday, October 15, 2008

घर कब आओगे

सुनो मेरी दास्तां , समझो सियासी चालें...
दंगे में वीरान हो चुके गुलाबगंज की जो दास्तां आपको सुनाई थी...आज दिखाने जा रही हूँ। हर बार दंगों के बाद ऐसा ही होता है..कुछ मुहल्ले बेनूर होते हैं लेकिन राजनेताओँ के चेहरे से नूर टपकता है। नूर वोटों की ताजी फसल काटने का। न जाने लोकतंत्र को वोटतंत्र बना चुके इन नेताओं के सामने कब तक हम आम जन भेड़तंत्र अपनाते रहेंगे। अब इस भेड़चाल को रोककर आमजनता को जिसमें मैं भी शामिल हूँ आप भी शामिल हैं...हमें वोटो की राजनीति से उबरना होगा। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। अब देखना यह है कि इस चुनावी दंगल में हम सियासी मोहरा बनते हैं या नहीं। हम इस बार यह समझ पाते हैं या नहीं कि हर बार क्यों चुनाव से पहले ही मजहबी दंगों का तांडव खेला जाता है...

Monday, October 13, 2008


वीरान बस्ती ..उजाड़ मोहल्ला


बुरहानपुर....मध्यप्रदेश का एतिहासिक शहर...एक जरा सी बात पर सियासत और सियासती दाँवपेंचों में झुलसता शहर। टैम सेंटर होने के कारण कई बार नजदीक से देखा था इस शहर को। जब भी यहाँ आती इतिहास का एक नया दस्तावेज हमारी बाट जोहता नजर आता। लेकिन इस बार अब्दुल रहीम खाने खाना की गजब बुद्धि से बने अजब खूनी भंडारे का यह शहर बड़ा वीरान लगा। दंगों ने यहाँ इंसानियत को तार-तार कर दिया। दस लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। एक बस्ती वीरान हो गई। इस बस्ती की हालत...बुरहानपुर में एक रिपोर्टर ने अपनी ड्यूटी तो निभा ली ...खबर कवर करने के बाद बोरियाबिस्तर बाँध लिया, लेकिन यह शहर खासकर गुलाबगंज की वीरान मोहल्ला मन में एक कसक छोड़ गया । आखिर क्यों हम इंसान ही उन्माद में आकर जानवरों से घटिया व्यवहार करने लगते हैं? सुनिए एक बस्ती की ....एक मोहल्ले की दास्तां...जिसे इस बस्ती की वीरान गलियों ने रुँधे स्वर से हमें सुनाया था.....

बुराहानपुर का गुलाबगंज। एक आबाद मोहल्ला। गरीबों का मोहल्ला। यहाँ 100 से ज्यादा गरीब परिवार हर दुख-सुख में साथ रहते थे लेकिन दस अक्टूबर की रात को हुए एक हंगामें के बाद इस बस्ती की तस्वीर बदल गई। ग्यारह अक्टूबर को कुछ शरारती तत्वों ने पहले मस्जिद से लगी दुकानों में आग लगाई ......फिर क्या था इस आग की चिंगारी में पूरा बुरहानपुर जलने लगा और सबसे ज्यादा कहर टूटा गुलाबगंज में......गुलाबगंज के 20 से ज्यादा घरों में आग लगा दी गई। डर और दहशत के कारण बस्ती का हर इंसान अपना घर छोड़कर कहीं न कहीं पनाह लेने पर मजबूर हो गया। जब हमने इस बस्ती में जाने का फैसला किया तो साथी पत्रकारों से लेकर पुलिस ने सबने हमें वहाँ जाने से रोका। सबको डर था कि गुलाबगंज के लोग कहीं जमा होंगे और हमला बोल देंगे.. लेकिन क्या करूँ हम ठान चुके थे कि हमें दंगों का सच दिखाना है इसलिए जाना ही होगा। रास्ता पूछते-पूछते हम गुलाबगंज में पहुँच ही गए...इस बस्ती के हौलकनाक मंजर ने हमें अंदर तक हिला दिया। बस्ती की वीरानी, जले घर और बचे-कुचे घरों में लटके ताले हमें इंसानों द्वारा इंसानों पर बरपाये कहर की दास्तां सुना रहा थें.. एक कड़वे सच से सामना करा रहे थे। इस मोहल्ले की गलियों में जगह-जगह चप्पले पड़ी थीं...जो गवाही दे रहीं थी कि इस मोहल्ले में रहने वाले कैसे अपने ही जैसे हाड़-माँस के इंसानों से डरकर भागे होंगे। जिस मोहल्ले की और रुख करने से हम घबरा रहे थे उस मोहल्ले की दीवारें तो खुद हर आंगतुक से डर रहीं थीं...शायद उनमें जान होती तो वे भी यहाँ बसने वाले इंसानों की तरह कहीं दूर बहुत दूर भाग चुकी होती।

हमने एक जले हुए घर का रुख किया....इस घर की काली पड़ चुकी दीवारें गवाही दें रहीं थी कि यहाँ कभी रौनक हुआ करती थी। यहाँ-वहाँ बिखरे बरतन बता रहे थे कि माँ यहीं बैठकर अपने बच्चों के लिए खाना बनाती होगी। एक जला पंखा गवाही दे रहा था कि वह इस घर में रहने वाले इंसानों को शीतल हवा देता होगा लेकिन आग की तपन के सामने इसकी शीतलता भी फीकी पड़ गई। पक्की दीवारों पर लटकी टीन की छते इस घर के मालिक की आर्थिक स्थिति की चुगली कर रही थी। ना जाने कैसे तिनके जोड़-जोड़ कर इस घर के मालिक ने कैसे अपना आशियाना बसाया होगा। जली अलमारी के अंदर जल चुके कपड़े बता रहे थे कि घर की मुनिया ने ईद-दशहरे पर खरीदी नई कमीज यहीं करीने से तह कर रखी होगी.। घर को छोड़कर भागते हुए कई जोड़ी आँखों ने मुड़-मुड़ कर अपने आशियाने को देखा होगा...अपने सपने को टूटते देखते होगा। इन कई जोड़ी आँखों से नींद अब नदारत होगी...लेकिन क्यों?

क्या किसी इंसान को यह हक है कि वह किसी दूसरे इंसान का आशियाना तबाह कर दें। यह कैसा उन्माद है जिसमें आदमी की आदमियत खत्म हो जाती है। हैवानियत का यह कौन सा जज्बा है, जो मासूम आँखों और नन्हीं गुलाबी हथेलियों के स्पर्श को महसूस नहीं कर पाता। जिसे नादां बच्चों में अपने बच्चे नजर नहीं आते। बूढ़े झुर्रीदार चेहरे से झाँकती आँखों में अपनी माँ नजर नहीं आती....क्या हम खुद अपने आशियाने में आग लगा सकते हैं? क्या हम अपने घर की महिलाओँ को दर-दर भटकने पर मजबूर कर सकते हैं? क्या हम अपने मासूमों को उनकी छत से उनके हक से महरूम कर सकते हैं? नहीं ना ! तो फिर किसने हमें हक दिया कि हम किसी दूसरे का आशियाना तबाह करें, मासूमों को दर-दर भटकने पर मजबूर कर दें।

बुरहानपुर के दंगों पर अब सियासत शुरू हो चुकी है...लेकिन यह बस्ती, इसका उजाड़ मंजर...जले घुए घरों की दास्तां सुनने का वक्त किसी के पास नहीं हे। दिन बीतते जाएँगें...इस बस्ती के बाशिंदे शायद अपने बसेरों की तरफ लौट आएँगे...लेकिन यकीन मानिए इस हौलकनाक मंजर को महसूस करने के बाद कई जोड़ी आँखे ऐसी होंगी जो अपने मोहल्ले गुलाबगंज में, अपने घर, अपनी छत के नीचे चैन से नहीं सो पाएँगीं....उनकी इस बैचेनी का सबब शायद कोई नहीं समझ पाएँगा....

दिन बीतने के साथ दंगों की आँच फीकी पड़ जाएँगी। पुलिस अपनी ड्यूटी से फारिग हो जाएगी...अपनों को खो चुके लोग अदालत के चक्कर काटते-काटते बेदम हो जाएँगे...और असली दंगाई अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते अपना वोटबैंक बढ़ाते जाएँगे...हर दंगे के बाद यही तो होता है, बुरहानपुर में भी यही हुआ...कल एक नए शहर में एक नई बस्ती होगी...........सियासतदार जिसका हश्र गुलाबगंज की तरह कर देंगे। और एक नया मोहल्ला अपनी बेनूरी पर क्रंदन करेगा...हाँ इतना जरूर है कि वह मोहल्ला रसूखदार अमीरों का नहीं बल्कि रोज कमाने और खाने वाले गरीबो का ही होगा।