Wednesday, October 15, 2008

घर कब आओगे

सुनो मेरी दास्तां , समझो सियासी चालें...
दंगे में वीरान हो चुके गुलाबगंज की जो दास्तां आपको सुनाई थी...आज दिखाने जा रही हूँ। हर बार दंगों के बाद ऐसा ही होता है..कुछ मुहल्ले बेनूर होते हैं लेकिन राजनेताओँ के चेहरे से नूर टपकता है। नूर वोटों की ताजी फसल काटने का। न जाने लोकतंत्र को वोटतंत्र बना चुके इन नेताओं के सामने कब तक हम आम जन भेड़तंत्र अपनाते रहेंगे। अब इस भेड़चाल को रोककर आमजनता को जिसमें मैं भी शामिल हूँ आप भी शामिल हैं...हमें वोटो की राजनीति से उबरना होगा। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। अब देखना यह है कि इस चुनावी दंगल में हम सियासी मोहरा बनते हैं या नहीं। हम इस बार यह समझ पाते हैं या नहीं कि हर बार क्यों चुनाव से पहले ही मजहबी दंगों का तांडव खेला जाता है...

Monday, October 13, 2008


वीरान बस्ती ..उजाड़ मोहल्ला


बुरहानपुर....मध्यप्रदेश का एतिहासिक शहर...एक जरा सी बात पर सियासत और सियासती दाँवपेंचों में झुलसता शहर। टैम सेंटर होने के कारण कई बार नजदीक से देखा था इस शहर को। जब भी यहाँ आती इतिहास का एक नया दस्तावेज हमारी बाट जोहता नजर आता। लेकिन इस बार अब्दुल रहीम खाने खाना की गजब बुद्धि से बने अजब खूनी भंडारे का यह शहर बड़ा वीरान लगा। दंगों ने यहाँ इंसानियत को तार-तार कर दिया। दस लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। एक बस्ती वीरान हो गई। इस बस्ती की हालत...बुरहानपुर में एक रिपोर्टर ने अपनी ड्यूटी तो निभा ली ...खबर कवर करने के बाद बोरियाबिस्तर बाँध लिया, लेकिन यह शहर खासकर गुलाबगंज की वीरान मोहल्ला मन में एक कसक छोड़ गया । आखिर क्यों हम इंसान ही उन्माद में आकर जानवरों से घटिया व्यवहार करने लगते हैं? सुनिए एक बस्ती की ....एक मोहल्ले की दास्तां...जिसे इस बस्ती की वीरान गलियों ने रुँधे स्वर से हमें सुनाया था.....

बुराहानपुर का गुलाबगंज। एक आबाद मोहल्ला। गरीबों का मोहल्ला। यहाँ 100 से ज्यादा गरीब परिवार हर दुख-सुख में साथ रहते थे लेकिन दस अक्टूबर की रात को हुए एक हंगामें के बाद इस बस्ती की तस्वीर बदल गई। ग्यारह अक्टूबर को कुछ शरारती तत्वों ने पहले मस्जिद से लगी दुकानों में आग लगाई ......फिर क्या था इस आग की चिंगारी में पूरा बुरहानपुर जलने लगा और सबसे ज्यादा कहर टूटा गुलाबगंज में......गुलाबगंज के 20 से ज्यादा घरों में आग लगा दी गई। डर और दहशत के कारण बस्ती का हर इंसान अपना घर छोड़कर कहीं न कहीं पनाह लेने पर मजबूर हो गया। जब हमने इस बस्ती में जाने का फैसला किया तो साथी पत्रकारों से लेकर पुलिस ने सबने हमें वहाँ जाने से रोका। सबको डर था कि गुलाबगंज के लोग कहीं जमा होंगे और हमला बोल देंगे.. लेकिन क्या करूँ हम ठान चुके थे कि हमें दंगों का सच दिखाना है इसलिए जाना ही होगा। रास्ता पूछते-पूछते हम गुलाबगंज में पहुँच ही गए...इस बस्ती के हौलकनाक मंजर ने हमें अंदर तक हिला दिया। बस्ती की वीरानी, जले घर और बचे-कुचे घरों में लटके ताले हमें इंसानों द्वारा इंसानों पर बरपाये कहर की दास्तां सुना रहा थें.. एक कड़वे सच से सामना करा रहे थे। इस मोहल्ले की गलियों में जगह-जगह चप्पले पड़ी थीं...जो गवाही दे रहीं थी कि इस मोहल्ले में रहने वाले कैसे अपने ही जैसे हाड़-माँस के इंसानों से डरकर भागे होंगे। जिस मोहल्ले की और रुख करने से हम घबरा रहे थे उस मोहल्ले की दीवारें तो खुद हर आंगतुक से डर रहीं थीं...शायद उनमें जान होती तो वे भी यहाँ बसने वाले इंसानों की तरह कहीं दूर बहुत दूर भाग चुकी होती।

हमने एक जले हुए घर का रुख किया....इस घर की काली पड़ चुकी दीवारें गवाही दें रहीं थी कि यहाँ कभी रौनक हुआ करती थी। यहाँ-वहाँ बिखरे बरतन बता रहे थे कि माँ यहीं बैठकर अपने बच्चों के लिए खाना बनाती होगी। एक जला पंखा गवाही दे रहा था कि वह इस घर में रहने वाले इंसानों को शीतल हवा देता होगा लेकिन आग की तपन के सामने इसकी शीतलता भी फीकी पड़ गई। पक्की दीवारों पर लटकी टीन की छते इस घर के मालिक की आर्थिक स्थिति की चुगली कर रही थी। ना जाने कैसे तिनके जोड़-जोड़ कर इस घर के मालिक ने कैसे अपना आशियाना बसाया होगा। जली अलमारी के अंदर जल चुके कपड़े बता रहे थे कि घर की मुनिया ने ईद-दशहरे पर खरीदी नई कमीज यहीं करीने से तह कर रखी होगी.। घर को छोड़कर भागते हुए कई जोड़ी आँखों ने मुड़-मुड़ कर अपने आशियाने को देखा होगा...अपने सपने को टूटते देखते होगा। इन कई जोड़ी आँखों से नींद अब नदारत होगी...लेकिन क्यों?

क्या किसी इंसान को यह हक है कि वह किसी दूसरे इंसान का आशियाना तबाह कर दें। यह कैसा उन्माद है जिसमें आदमी की आदमियत खत्म हो जाती है। हैवानियत का यह कौन सा जज्बा है, जो मासूम आँखों और नन्हीं गुलाबी हथेलियों के स्पर्श को महसूस नहीं कर पाता। जिसे नादां बच्चों में अपने बच्चे नजर नहीं आते। बूढ़े झुर्रीदार चेहरे से झाँकती आँखों में अपनी माँ नजर नहीं आती....क्या हम खुद अपने आशियाने में आग लगा सकते हैं? क्या हम अपने घर की महिलाओँ को दर-दर भटकने पर मजबूर कर सकते हैं? क्या हम अपने मासूमों को उनकी छत से उनके हक से महरूम कर सकते हैं? नहीं ना ! तो फिर किसने हमें हक दिया कि हम किसी दूसरे का आशियाना तबाह करें, मासूमों को दर-दर भटकने पर मजबूर कर दें।

बुरहानपुर के दंगों पर अब सियासत शुरू हो चुकी है...लेकिन यह बस्ती, इसका उजाड़ मंजर...जले घुए घरों की दास्तां सुनने का वक्त किसी के पास नहीं हे। दिन बीतते जाएँगें...इस बस्ती के बाशिंदे शायद अपने बसेरों की तरफ लौट आएँगे...लेकिन यकीन मानिए इस हौलकनाक मंजर को महसूस करने के बाद कई जोड़ी आँखे ऐसी होंगी जो अपने मोहल्ले गुलाबगंज में, अपने घर, अपनी छत के नीचे चैन से नहीं सो पाएँगीं....उनकी इस बैचेनी का सबब शायद कोई नहीं समझ पाएँगा....

दिन बीतने के साथ दंगों की आँच फीकी पड़ जाएँगी। पुलिस अपनी ड्यूटी से फारिग हो जाएगी...अपनों को खो चुके लोग अदालत के चक्कर काटते-काटते बेदम हो जाएँगे...और असली दंगाई अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते अपना वोटबैंक बढ़ाते जाएँगे...हर दंगे के बाद यही तो होता है, बुरहानपुर में भी यही हुआ...कल एक नए शहर में एक नई बस्ती होगी...........सियासतदार जिसका हश्र गुलाबगंज की तरह कर देंगे। और एक नया मोहल्ला अपनी बेनूरी पर क्रंदन करेगा...हाँ इतना जरूर है कि वह मोहल्ला रसूखदार अमीरों का नहीं बल्कि रोज कमाने और खाने वाले गरीबो का ही होगा।