Sunday, November 30, 2008

रात अभी बाकी है.....

गहन अंधेरा है
उजास नजर आता नहीं
हर तरफ कुहासा है
क्योंकि रात अभी बाकी है....

ताज पर फिर फहरा गया तिरंगा
लेकिन जमीं पर बिखरा खून अभी बाकी है
शर्मिंदा है जमीर, माँ की नहीं कर पाया रक्षा
हर सिर है झुका क्योंकि रात अभी बाकी है....

उजाले के लग रहे हैं कयास
पर भूलों मत रात अभी बाकी है
गुस्से से भिच रही हैं मुट्ठियाँ
चढ़ रही हैं त्योरियाँ....

बच्चों की मासूम मुस्कुराहट के बीच
माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें बाकी हैं
उठो खड़े हो और लड़ों क्योंकि रात अभी बाकी है
रोशनी की चंद किरणों को समेटों और हुंकार भरो....

माँ के सपूतों उठों, दानवों से लड़ों
रुदन और क्रंदन के बीच कहो
हमने हार नहीं मानी है इसलिए कहते हैं कि
रात अभी बाकी है लेकिन भोर होने वाली है ।

(किसी ने कहा, कानों ने सुना, न जाने क्या हुआ...बस मन किया और की बोर्ड पर अंगुलियाँ चल गईं
और एक कच्ची-पक्की कविता या कहें काफिया लेकिन सच्ची भावनाएँ आकार ले गई। मनोभाव कुछ मासूमों के हैं जिनमें बहुत कांट-छांट करना मुझे गवारा नहीं लगा। )

Saturday, November 29, 2008

एक पाती भईया राज के नाम...

राज ठाकरे जी कदाचित नाराज होंगे....मैंने उन्हें उत्तर भारतियों की तरह भईया जो कह दिया। क्या करूँ, रहती मध्यप्रदेश में हूँ लेकिन दोस्त पूरे देश में फैले हैं...तो भईया राज आप कौन सी कुंभकर्णी नींद में सोए हो। मुंबई जल रही है लेकिन आप नजर नहीं आए। क्यों घर में दुबके रहे। हम इंदौर में रहते हैं। हमारे इंदौर को माँ अहिल्या के नाम से जाना जाता है इसकी पहचान इंदूर के रूप में थी। यदि आप यहाँ होते तो मिनी मुंबई कहलाने वाले इंदौर की तरक्की की जगह इंदौर को इंदूर बनाने में तुले रहते। हमारे धर्मनिरपेक्ष कुटुंब में सासू माँ महाराष्ट्रियन हैं...वे आपसे खासी खफा हैं। वे हमेशा कहती हैं आप देश बाँट रहे हैं...जहाँ चार बर्तन हो खटकते हैं लेकिन बर्तन बाहर फेंक दिए जाएँ तो रसोई कैसे बनेगी। हमारे परिचितों के घर होने वाली महाराष्ट्रियन संगोष्ठी में भी आपको आपकी नीतियों को कोसा जाता है।


कल ऐसी ही एक संगोष्टी हमारे घर में थी जिसमें मुंबई में शहीद सभी देशभक्तों को श्रद्धांजली दी गई। श्रद्धांजली में 85 वर्षीय बुजुर्ग दंपत्ति जिन्हें हम प्यार से आत्या और आतोबा भी शामिल थे। हम तो कुछ ही देर के लिए वहाँ जा सके लेकिन जो देखा-सुना वो आप तक पहुँचा रहे हैं। आतोबा अपने धीमें स्वरों में बड़बड़ा ( आप जैसे नौजवान यही कहेंगे) रहे थे '' अरे, राज ठाकरे कहाँ हैं, उसे नींद से जगाओं। मुंबई से उत्तर भारतियों को निकालने में, बेकसूर छात्रों की पिटाई करने में तो बेहद आगे थे। लेकिन अब जब आमची मुंबई के सम्मान पर हमला किया जा रहा है तब वे कहाँ छिपे हैं। ठीक है, आतंकियों से मुकाबला नहीं कर सकते लेकिन बाहर से ही सही कम से कम सेना के जवानों और कमांडों को भोजन-पानी ही पहुँचा देते। सड़क पर निकलकर मुंबई वासियों को विश्वास ही दिला देते कि मुसीबत के समय में उनका नेता उनके साथ हैं।''


वहीं आत्या आशा मोघे जो खुद रिटायर्ड प्रिसंपल रही हैं ठेठ मराठी में बोली मैं हिंदी मे अनुवाद लिख रही हूँ '' यदि मेरा राज जैसा बेटा होता तो अहिल्या माँ की तरह हाथी के पाँव के नीचे कुचलवा देती। नाकारा आज मुंबई को उसकी जरूरत है। वो ये क्यों भूल रहा है कि आज मुंबई की रक्षा सेना कर रही है। जिसमें हर धर्म के लोग हैं। शहीद होने वाले जाँबाजों में भी हर धर्म के लोग हैं'' , तो भईया राज अब आप बताओं आपके पास हमारे आत्या-आतोबा के सवालों के कुछ जवाब है।


हम तो यहीं कहेंगे कि यह हादसा आपको सबक सिखा जाएँ। आप हमारे भारत को बाँटने का काम छोड़े और अब उत्तरभारतियों नहीं बल्कि आतंकवादियों के खिलाफ मुहिम छेडे़..मानती हूँ आप जैसे राजनीतिज्ञ से उम्मीद ज्यादा कर रही हूँ लेकिन जानती हूँ उम्मीद पर ही दुनिया टिकी है।

Thursday, November 27, 2008

आतंक के दानव का सिर कुचल दो

कल रात से नींद आखों से गायब है...पूरी रात चैनल बदलने, मुंबई के हालातों की पल-पल की खबर देखनें में बीती। चैनल बदलते हुए बैचेनी बहुत थी। बैचेनी के दो कारण थे एक ये कि आखिर क्यों बार-बार हमारे ही देश को निशाना बनाया जा रहा है? दूसरा यह कि जब मेरे पति, जो इस समय ब्रिटेन के एक अस्पताल में डॉक्टर हैं, मुंबई के हालात टीवी पर देखने के बाद हालचाल जानने के लिए मुझे फोन करते हैं। तब हमारे एक ब्रिटिश दोस्त मुझे संवेदना जताते हुए कहते हैं - " कम बैक, योर कंट्री इज इन डेंजर...वॉय यू वांट टू लिव इन इंडिया...इट्स नॉट ए प्लेस फॉर लीविंग" और हर बार की तरह मैं जॉन को भारत की खासियत गिना नहीं पाईं। उसे भारतदर्शन का न्यौता दे नहीं पाईं।

मैं निरूत्तर थी, क्योंकि पहले धरती के स्वर्ग को दहलाया जाता था...असम को जलाया जाता था...फिर आई संसद की बारी। उसके बाद तो निर्लज्ज आतंकियों की कुत्सित गतिविधियों से पूरा देश थर्रा गया। कभी मुंबई की लोकल को निशाना बनाया गया तो कभी समझौता एक्सप्रेस को। उसके बाद अजमेर, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर, दिल्ली और मुंबई...दिल्ली के कनॉट प्लेस में हुए धमाके बता गए कि अब आतंकवादियों के हौंसले इतने बुलंद हो चुके हैं कि वे भारत के उच्च मध्यम वर्ग को निशाना बना सकते हैं। कल मुंबई के ताज पर हुआ हमला अभिजात्य वर्ग पर निशाना था। मानो ये आतंकी अट्टाहास कर रहे हों, बच सकते हो तो बचो तुम अपने देश में कहीं भी महफूज नहीं हो....चाहे गरीब हो या अमीर..देशी हो या विदेशी तुम हमारे निशाने पर हो। अब वक्त है इस अट्टाहास के समूल विनाश का। लेकिन यक्ष प्रश्न है - " क्या हमारी सरकार चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, अब होश में आएँगी।" आज ब्रिटिश क्रिकेट टीम वापस जाने की कवायद कर रही है। मैं किस मुँह से जॉनेथन को कहती कि मैं नहीं तुम अपना बोरिया-बिस्तर बाँधों और भारत चले आओं। मैं तुम्हें अपनी नजरों से अपना हिंदोस्तां दिखाऊँगीं। तरक्की के नए सोपान चढ़ता इंडिया ! जॉन की वाइफ कैथी को इंडिया अपील करता है लेकिन कल वो भी आशंकित नजर आई । ताज के गुंबद को जलता देख स्तब्ध कैथी " कम बैक डियर" बस यही कह पाई।

मैं भारत के दिल मध्यप्रदेश में सुरक्षित हूँ लेकिन खुद से ही पूछ बैठती हूँ कब तक...तब तक ही न जब तक आतंकवादी मेरे शांत मालवा को निशाना नहीं बना लेते। कल जिस तरह एटीएस के जांबाजों को निशाना बनाया गया ...निर्दोषों की मौत का आकड़ा सैकड़ा पार कर गया। क्या उसे देखकर सरकारी तंत्र का सिर शर्म से नहीं झुकता। आखिर क्यों हम इतने नपुंसक हो गए हैं? बार-बार आतंकी हमले झेलने के बाद हमारी सरकारें जिम्मेदारी को गेंद की तरह एक दूसरे के पाले में क्यों फेंकती नजर आती हैं। क्यों नहीं हम उठ खड़े होते ...एक दूसरे से हाथ थामते हुए इस आतंक के दानव का सिर कुचलने के लिए।

मुझे याद है जब मैं छोटी थी तब काश्मीर में हल्का सा विस्फोट भी चर्चा का विषय था...लोगों की आँखे नम होती थीं...आज बड़ी सी बड़ी घटना आँखों को नम नहीं करती। हमारे तंत्र की इसी विफलता के कारण आतंकियों का दुस्साहस बढ़ गया है। पहले ये दबे-छिपे विस्फोट करते थे अब खुलेआम मुंबई की आबरू पर हमला करते हैं। एक दो नहीं बल्कि कई जगहों पर बैखोफ आतंकी मशीनगनों और हथगोलों के साथ खुलेआम नरसंहार करते हैं...और अपनों को खोती, छलनी होती बेबस जनता अपने कर्णधार नेताओं की तरफ रूंधे गले और गीली आँखों से टकटकी लगाए देखती रहती हैं।

लेकिन अब नहीं, हम आम भारतीय को भी इस बेबसी की खोल से बाहर निकलना होगा। अभी वक्त है यदि हम एक न हुए और एक होकर आतंक के इस दानव का सिर कुचलने के लिए तैयार न हुए तो फिर वक्त हाथ से निकल जाएगा। हम कभी गर्व से नहीं कह पाएँगें कि हम भारत माँ के सपूत हैं...हम भारतीय हैं...मैं आज भी जोनेथन और कैथी में विश्वास जगाना चाहती हूँ कि भारत खूबसूरत है! सुरक्षित है ! यहाँ आओ, मैं तुम्हें गंगा के घाट दिखाऊँगी, रंगीला राजस्थान घुमाऊँगी, आगरा का ताजमहल तुम्हारा इंतजार कर रहा है, ऊँटी के चायबागानों में काम करने वाले भोले-भाले लोगों से मिलवाऊँगीं, मालवा की काली मिट्टी से रूबरू कराऊँगी...हैसियत नहीं है लेकिन बाहर से ही सही अपने वैभव पर इठलाता मुंबई की शान होटल ताज दिखाऊँगी।

हाँ मैं उन दोनों को भारत बुलाना चाहती हूँ....लेकिन उन्हें बुलावा देने से पहले हमें समूचे तंत्र को झंझोड़ना होगा। अपने खूफिया तंत्र और नाकारी सरकार को कुंभकर्णी नींद से जगाना होगा। आतंकियों के जेहन में भायवह डर पैदा करना होगा...उन्हें अपने बुलंद इरादों से इतना डराना होगा कि वे फिर हमारे देश की अस्मिता की तरफ सिर उठाकर न देख सकें। जी हाँ अब हमें अपने तंत्र को मजबूर करना होगा, हौसलों को बुलंद करना होगा...और उठ खड़े हो आतंक के इस दानव का सिर कुचलना होगा...आमीन