Thursday, August 6, 2009

बिन रोली हल्दी के साथ परदेस में बंधी राखी....


चार से पाँच माह बीत गए...लंबे समय से कम्प्यूटर से दूर पहले तो आँखों का ऑपरेशन...फिर बहन की शादी...इसके बाद परदेसी होना। मेरा ब्लॉग भी मेरी माँ की तरह तन्हा हो गया..

लंदन की आबोहवा के बाद भारत की गर्माहट और दो माँओं का दुलार....इसके बाद न्यूजीलैंड का सफर....घबराहट और कुछ माह के लिए माँओं से बिछुड़ने का डर मन में लिए मैं यहाँ आई थी। लेकिन सच कहूँ न्यूजीलैंड बेहद प्यारा लग रहा है। सबसे बड़ी बात है इस बार इंग्लैंड की राजधानी लंदन की तरह हम एनजेड की राजधानी वैलिंगटन में नहीं हैं। यहाँ हमारा बसेरा पामसटन नार्थ में है..शार्ट में पामी छोटा, प्यारा नैसर्गिक खूबरती से भरा शहर..

इस शहर की हैरीटोंगा स्ट्रीट पर बने मकान नंबर 17 को घर बनाते-बनाते एक महीना कहा गुजर गया पता न चला...कलैंडर पर तारीखें बीतती गईं......सावन की रिमझिम झड़ी से दूर कड़कती सर्द सुबह में राखी की गर्माहट याद आई...ध्यान आया राखी तो कुछ दिनों की दूरी पर है...राजीव और आयुष राखी का इंतजार कर रहे थे....औऱ सच कहूँ इस बार इंतजार की इंतहा हो गई। रोज ये लैटर बाक्स देखते लेकिन राखी की पोस्ट नजर नहीं आती।

बहनों ने तो पंद्रह दिन पहले ही राखी पोस्ट कर दी थी। पता तो सही लिखा होगा न...जैसे कई सवाल जेहन में आते लेकिन उपर वाले की मेहरबानी देखिए...राखी के एक दिन पहले राखी के प्यार में गुथा गांधी जी के टिकिट से सजा लिफाफा पोस्ट में इतराता, इठलाता नजर आया।

खुशी से लिफाफा खोला तो देखा बहन के खत के साथ न्यूजीलैंड की सरकार का पत्र भी है....फिर क्या बहन के खत से पहले राजीव ने सरकारी फरमान पढना मुनासिब समझा। पत्र में बेहद इज्जत के साथ बताया गया था कि लिफाफे में कुछ सीड्स थे जिन्हें सुरक्षा की दृष्टि से रोक लिया गया है। यदि हमें वे चाहिए तो बकायदा उनका टेस्ट करवाया जाए...( हेड्स ऑफ देम....इसे कहते है सुरक्षा। तभी इस देश में चोरी-चकारी और हमलों की वारदात लगभग शून्य है) । राजीव गफलत में फँस गए तब समझ में आया अक्षत और रोली रोक ली गई हैं।
अगले दिन राखी की थाली सजाई गई अक्षत की जगह यहाँ के चावल रख लिए गए लेकिन रोली कहाँ से लाए। फिर राजीव ने ही दिमाग लगाया और हल्दी को रोली की जगह इस्तेमाल किया गया। शुक्र है विदेशियों को इंडियन करी पंसद आती है इसलिए हल्दी यहाँ के सुपर स्टोर में आसानी से मिल जाती है...

इस तरह एनजेड में हमारा पहला त्योहार नेह के बंधन का त्योहार बिना बहन और बिना रोली के बाप-बेटे के प्यार में बीत गया...

Sunday, January 11, 2009

कभी-कभी खुद को पत्रकार मानने में शर्म आती है !


आज भी याद है सन 99 की वह सुबह जब एक ख्यात अखबार में उनके जर्नलिज्म स्कूल के खुलने की बात लिखी थी...पापा को बताया कि पत्रकारिता जैसा कुछ करना चाहती हूँ। यह बात सुनते ही माँ नाराज हो गईं। उनका मानना था कि पत्रकार केवल थैला लटकाकर यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं...फिर तुम गुटका चबाने-सिगरेट फूँकने वालो के बीच काम कैसे कर पाओगी। अगर सिविलसर्विसेज देने का मूड नहीं है तो लैक्चरार बन जाओ या फिर एमबीए बहुत से प्रोफेशनल्स कोर्सेस हैं....कुछ और कर लो। पापा ने कभी कुछ करने से रोका नहीं इसलिए उन्होंने हामी भर दी हारकर माँ ने भी हाँ कर दिया।

तब से लेकर अब तक हमेशा खुद को पत्रकार मानने में बेहद गर्व होता था। हमेशा लगता था कि हम कुछ नया कर सकते हैं। एक खबर जिसके असर से किसी का भला होता था तो लगता था कि जग जीत लिया। लेकिन अब पत्रकारिता में हो रही मारामारी से शर्म आती है। कारण हम सभी नियमकानून ताक में रख सिर्फ सर्क्यूलेशन या टीआरपी के चक्कर में फँस चुके हैं। महसूस होने लगा है कि हमें खबरों से कोई वास्ता ही नहीं रहा है। कभी न्यूज चैनल भूत-प्रेत, हत्याएँ, क्राइम की खबरें बेहद लाउड तरीके से दिखाकर टीआरपी गेन करने की कोशिश करते हैं .....इलेक्ट्रानिक मीडिया तो लगता है कि शैशवकाल में ही अपने रास्ते से भटक चुका है। उसे पता ही नहीं मंजिल क्या है बस बिना लगाम के घोड़े की तरह भागा जा रहा है।

अभी गुरूवार रात एक न्यूज चैनल में चिल्लाचिल्लाकर एनकाउंटर के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे थे। मेरी दोनों माओं ने भी वह चैनल चला रखा था। दोनों भोली माएँ समझ नहीं पाईं की उसी कमरे में खेल रहे चार साल आयुष के मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। हिंसक दृश्य सबसे पहले बच्चों को प्रभावित करते हैं और अपना शिकार बनाते हैं....इस कारण हमने अभी तक गजनी भी नहीं देखी है। मैंने तो चैनल बंद करवा दिया। आयुष भी पजल खेल रहे थे इसलिए शायद टीवी पर उनका ध्यान नहीं गया लेकिन आयुष के हमउम्र दोस्त ध्रुव के घर शायद पूरा एनकाउंटर देखा गया होगा। अगली सुबह स्कूल ऑटो का इंतजार करते हुए सभी बच्चे कॉलोनी में खेल रहे थे। तभी ध्रुव ने कहा आयुष तुम चोर मैं पुलिस अब मैं तुम्हें मारूँगा...तुम पहले तनी ( तीन साल की बच्ची ) के फोरहेड पर बंदूक लगाओं और ठीक न्यूज चैनल के अंदाज में दोनों खेलने लगे। मैं सन्न रह गई। क्या सस्ती सनसनी और टीआरपी के लिए इस खबर को दिखाना जरूरी था। ये सही है कि दर्शक अकसर कोतहूलता वश ऐसे प्रोग्राम देखेते हैं, मीडियाकर्मी बीचबचाव करते हुए बोलते ही कि दर्शक या पाठक ऐसे ही प्रोग्राम देखना चाहते हैं। लेकिन खुद को प्रबुद्धों की जमात में मानने वाले लोग आखिर कर क्या कर रहे हैं?

जरा बच्चों का विजुवलाइजेशन जानिए-मैंने ध्रुव से पूछा कि आप यह खेल क्यों खेल रहे हो? किसने सिखाया?
ध्रुव- आँटी, टीवी पर देखा था...मम्मी के साथ।
आप पुलिस ही क्यों बनना चाहते हो?
ध्रुव- आंटी, चोर बनूँगा तो गोली लगेगी। फिर मुझे गिरना पड़ेगा। पेंट डर्टी हो जाएँगा, माँ डाँटेगी इसलिए पुलिस बनूँगा।
मैंने तीनों को समझाया देखों ऐसे खेल नहीं खेलते......
आयुष - मम्मा, आप भी तो टीवी में हो ना....टीवी अंकल ऐसा ही बताते हैं....अच्छा नहीं खेलूँगा मगर आप मुझे बैनटेन की घड़ी लाकर दो ( एक कार्टून सीरियल) फिर मैं बिग एनीमल बनकर फाइट करूँगा और गंदे लोगों को मारूँगा।

मैं ज्यादा समझाती उससे पहले ही उनका ऑटो आ गया......

खैर आयुष को स्कूल भेजकर हमने रुख किया दफ्तर का और दो-चार होने लगे दिनभर की खबरों से देर रात पता चला की एक पिछड़ी बस्ती में दो युवकों ने एक हिस्ट्रीशीटर बदमाश का खून कर दिया है। खबर ब्रेक कराकर कैमरापर्सन को खबर के लिए रवाना कर दिया गया। शनिवार ऑफिर पहुँचते ही देखा कि मध्यप्रदेश के लगभग हर चैनल पर एक व्यक्ति के आत्मदाह की कोशिश के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे हैं। हर चैनल चिल्ला रहा था कि एक्सक्लूजिव फुटेज है। किसी मानसिक रुप से परेशान इंसान के इस बेवकूफीभरे कदम को दिखाने की क्या जरूरत। दिखाना है तो उसकी परेशानी दिखाएँ या फिर परेशानी को हल करने में मदद करें। अभी यह खबर दिमाग में कौंध ही रही थी कि एक चैनल के रिपोर्टर का फोन आया " पता चला क्या, कल के मर्डर के किसी के पास लाइव फुटेज हैं । मैं कोशिश कर रहा हूँ, तुम भी कुछ जुगाड़ लगाओ।"

" कुछ ही देर मैं गजब ब्रेकिंग हैं। कल रात हुए मर्डर का लाइव फुटेज है। उस बस्ती के कुछ लोग इस हत्याकांड में बीचबचाव की कोशिश कर रहे थे। तब किसी ने अपने मोबाइल पर पूरे हत्याकांड को कैद कर लिया" ....यह बात सारे खबरचियों तक पहुँच गईं.....हर एक में होड़ लग गई कि सबसे पहले कौन दिखाएँगा......ड्यूटी के तहत हमने भी एसाइनमेंट को खबर दी कि ऐसी कोई बात है। बस फिर क्या था असाइनमेंट के बंधुओं के फोन पर फोन घनघनाने लगे। कुछ ही देर में हमारे एक रिपोर्टर ने फुटेज जुगाड़ लिए। फिर एक फोन मैडम, फुटेज मिल गए सबसे पहले अपने चैनल पर ही चलेगें। मैं खबर लेकर सीधे आ रहा हूँ।

इसके बाद हमने फुटेज देखें...बेहद हीनियस......दो युवक एक अन्य युवक को तलवारों से घायल कर रहे हैं। कुछ लोग बीचबचाव की कोशिश कर रहे हैं। घायल युवक यहाँ-वहाँ भागकर जान बचाने की कोशिश कर रहा है। मैंने अपने असाइनमेंट पर फिर से फोन किया- क्या यह खबर दिखाना चाहिए? जवाब आया- बिलुकल, सभी दिखाएँगें, टीआरपी का सवाल है। फिर क्या था पूरे फुटेज को कई बार दिखाया गया......इस खबर के बाद पूरी रात नींद नहीं आई। करवटे बदलते हुए सोचती रही कि क्या हम सचमुच पत्रकार हैं....सच कहूँ तो कभी-कभी खुद को आज के समय का पत्रकार मानने में शर्म आती है।

Friday, January 9, 2009

वैशाली की नगर वधू से लेकर फैशन फिल्म तक



" क्या मिलेगी नारी को अपनी ही देह से मुक्ति "

फिर एक साल बदल गया......कलैंडर में 2008 की जगह अब 2009 चस्पा नजर आता है लेकिन क्या स्थितियाँ बदलेंगी। खासकर महिलाओं के लिए.....क्या उन्हे मुक्ति मिलेगी अपने ही देह के जाल से। क्या उन्हें सुंदर देह की कठपुतली और भोग्या से बढ़कर कुछ और भी माना जाएगा। इस बार नए साल की शुरूआत नानी के गाँव से की। कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पहले ददिहाल जबलपुर गई उसके पास ही एक गाँव है फुलारा.......वहाँ मेरा प्यारा ननिहाल है। यह गाँव काफी छोटा और शोर-शराबे से दूर लगता था लेकिन बीते पाँच सालों ने गाँव की रंगत बदल दी है. अब गाँव के कच्चे घरों की छप्पर पर भी डिश टीवी तैनात दिखता है।

मामा ने भी हमारी छत पर उसे लटका रखा है लेकिन बिजली विभाग की दया से वहाँ दस से बारह घंटे की बिजली नदारत थी सो गाँव का सुकून महसूस हुआ। बुद्धू बक्से के मुँह पर ताले जड़े रहे। कड़ाके की ठंड थी सो बचपन की तरह पंखे की कमी भी नहीं खली। बल्कि दीनदुनिया से दूर नानी का घर साथ में चिपके खेत अजीब सा सुकून दे रहे थे। इसी सुकून के बीच धूप सेंकते हुए तुरंत तोड़ी हुई गदराई बिही (अमरूद) का स्वाद उठाते हुए नाना जी की लाइब्रेरी की याद आई। आनन-फानन में लकड़ी की अटारी(एक कमरे का नाम) पर जाकर नाना की लाइब्रेरी खंगालने लगी। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पढ़े मेरे नाना को पढ़ने का खासा शौक था..उन्हीं के साथ मैंने अपनी जिंदगी का सबसे पहला हिंदी का उपन्यास चंद्रकांता संतती पढ़ा था। हाई स्कूल में शिवानी से परिचय भी गाँव में ही हुआ। आचार्य रजनीश से लेकर विवेकानंद तक मैंने कई उपन्यास और किताबे नाना की लाइब्रेरी से निकाल कर पढ़े.....लेकिन जाने क्या बात थी कि आचार्य चतुर्सेन के उपन्यास वैशाली की नगरवधू को नाना ने पढ़ने न दिया। तब मैं हाईस्कूल में थी जब नाना ने मेरे हाथों से छीनकर उस उपन्यास को अटारी पर रख दिया।


उसके बाद कई बार रेलवे स्टेशन पर मुझे यह किताब नजर आईं लेकिन जिद्द थी जो नाना पढ़ सकते हैं मैं क्यों नहीं । मैं तो नाना से लेकर ही पढ़ूगी........आज जब नाना नहीं थे तब उनकी लाइब्रेरी में ये किताब बड़ी जतन से रखी दिखाई दी। नानी से प्यार से कहा- आखरी बखत में तेरे नाना किताबें संभाल रहे थे ....जिल्द चढ़ा रहे थे ....कह रहे थे मोनू आए तो दे देना बाकि सब को तो हैरी पॉटर से ही प्यार है। कौन पढ़ेगा इन्हें। लाइब्रेरी में सबसे आगे रखे उपन्यास को महसूस हुआ "नानू खुद कह रहे थे अब नहीं रोकूँगा जा पढ़ ले।"


फिर क्या था ..गुनगुनी धूप में नाना की आरामकुर्सी रखी और रात तक उपन्यास से ही चिपकी रही.। जब तक नानी की मीठी डाँट "अरी बिटुरी तनिक हमारे पास भी बैठ जा कल तो जाना है कि रट शुरू कर देगी ".के बाद याद आया कि रात हो चुकी है। खाना खाकर बिजली विभाग को जमकर कोसा। नानी से तनिक देर बतियाने के बाद अंधेरे में चिमनी जलाकर किताब जारी रही। अगले दिन सुबह इनोवा के सफर में भी अम्बपाली मेरी हमसफर बनी........रस्ता कैसे कट गया पता नहीं चला......अम्बपाली एक मासूम बच्ची जिसकी मासूम इच्छाएँ थीं से लेकर एक खूबसूरत देह की युवती एक गौरवमयी युवती जिसे जबरदस्ती नगरवधू बनाया गया।


उसके बाद जब वह साध्वी बनी तब भी बौद्धों ने भी कहा कि " अब नारी ने बौद्ध धर्म में प्रवेश ले लिया है यह न बचेगा" अर्थात बुद्ध और उनके अनुयायी भी मानते थे कि आम व्यक्ति संत बनने के बाद भी नारी को देह ही मानेगा। नारी के देह की गमक सन्यासी के ब्रह्मचर्य को तोड़ सकती है। इसी उपन्यास में एक और किरदार था कुडली विषकन्या अपनी सुंदर देह का भार ढ़ोती एक और स्त्री। अम्बपाली के बारे में जितना सोचती मन कड़वा होता जाता। महसूस होता कि यह किरदार यदि वास्तव में जीवित होता तो अपनी देहभार के नीचे दबी यह गरिमामयी महिला शायद हर रात एक नई मौत मरता। शाम होते-होते हम जबलपुर पहुँच गए। बहनों ने बड़े चाँव से फैशन लगाई। अपनी कमाई से खरीदें एलसीडी टीवी का रिज्योलूशन दिखाने का उत्साह था...इसी उत्साह में माँ और मैं अपनी थकान भूल गर्म रजाई में घुस फिल्म देखने लगे.........लेकिन जैसे-जैसे प्रियंका चौपड़ा, कंगना रणावत का किरदार आकार लेता जा रहा था वैसे-वैसे मुझे उस किरदार में अम्बपाली नजर आने लगी। लगा हर एक के दिमाग में नारी की देह ही कसमसा रही है। हर जगह जहाँ दिमाग और विद्वत्ता की बात आती है और महिला भारी नजर आती है तो उसके इस दिमाग को उसी की देह के नीचे कुचलने की कोशिशे की जाती हैं। आखिर क्यों?

क्या इस नए साल में नारी को स्वयं उसकी देह से मुक्ति मिल पाएँगी। हमें एक संपूर्ण व्यक्तित्व की तरह सराहा जाएगा। या फिर कोमल भावनाओं की पूँजी नारी भी पुरष की तरह देह को प्रमुखता देने लगेगी.......या देने लगी है तभी तो संजय दत्त, सलमान खान, जॉन अब्राहम के बाद शाहरूख खान और आमिर खान भी अपनी सिक्स और एट पैक देह का प्रदर्शन करते नजर आ रहे हैं......इस साल क्या होगा। मैं तो चाहती हूँ नारी को अपनी ही देह से मुक्ति मिल जाएँ और वो ऊँचे आकाश में उड़े लेकिन यह उड़ान विचारों की हो।