Thursday, April 21, 2016

शिप्रा का यूं रेवा हो जाना...



 उज्जैन रामघाट में कदम रखते ही अद्भुत शांति का अनुभव होता है। शांति शिप्रा के रेवा होने की। रेवा.....हमारी माँ नर्मदा......मेरी माँ नर्मदा। रेवा से मेरा नाता पुराना है। जन्म उनके शहर जबलपुर में हुआ....थोड़ी बड़ी हुई तो स्वभाव में “विद्रोह, आत्मसम्मान, लड़की होने का मान” अपने आप घुलता गया। एक पल में विनम्र तो दूसरे पल में उग्र......दादी ने कहा ‘रेवा’ है। पापा ने कहा ‘नर्मदा को कोई बांध-बांध सका है क्या’ जो इसे बांध लोगे। बहने दो निर्मल। नर्मदा के तीरे ही ‘ओशो’ का जन्म हुआ है। ओशो से पहले ‘जगत सत्यमं ब्रह्म मिथ्या’ का जाप करने वाले ‘जबाली ऋषि’ की कर्मभूमी भी नर्मदा का किनारा ही रहा है। नर्मदा जो गलत का ‘विद्रोह’ और ‘सच का साथ देने’ का ‘ताप’ पैदा करती है। बस ‘नर्मदा-रेवा’ यह नाम बार-बार सुनकर नर्मदा की पूरी कहानी कंठस्त कर ली।


माँ नर्मदा की कहानी सुन में प्रेरित होती कैसे प्रेमी के कटु वचन सुन इस अपराजिता नदी ने अपना रुख बदल लिया। आज की ‘सो कॉल्ड मार्डन’ और ‘सैल्फ डिपेंडेंट’ लड़की की तरह प्रेमी के हाथ ‘पिटी’ नहीं। ‘आत्महत्या’ जैसा ‘अविवेकी’ निर्णय नहीं लिया। फिर नानी से सुना ‘गंगा’ शिव की जटाओं में बंधकर रह गई। क्षिप्रा ने महाकाल के चरण बुहारे...लेकिन हठी-अभिमानी नर्मदा ने तो कंकर-कंकर में शंकर रच दिए। क्या यह ‘अभिमान’ था, नहीं ‘स्वाभिमान’ था। एक निर्मल कंठी का ‘स्वाभिमान-स्वाबलंबन’। फिर इस महांकुभ के सिंहस्थ की पावन बेला में जब ‘रेवा ने क्षिप्रा’ का आलिंगन किया है तो कुछ ‘अद्भुत’ तो घटित होना ही था।


 जब भी लोग ‘चंडाल योग और सिहंस्थ’ की बाते करते में ‘मंद-मंद मुस्काती’...रेवा से मेरी दोस्ती अल्हड़पन से थी। भेड़ाघाट में उनका संगमरी रूप किसी भी सुंदरी के सौंदर्य का मान-मर्दन कर देता। उनका उफान अच्छे-अच्छे बांधों की धज्जियां उड़ा देता। उनका निर्मल स्वरूप कंकर-कंकर में शंकर रच देता। उस माँ नर्मदा का क्षिप्रा से अनूठा मिलन ऐसे ‘चंडाल योग’ की ‘धज्जियां उड़ाने’ के लिए काफी था। मैं तो इंतजार कर रही थी कुछ ‘अद्भुत’ होने का। कुछ ऐसा घटित होने का जो पहले कभी न हुआ हो...और आज हो भी गया।


इतिहास में पहली बार ‘किन्नर अखाड़े’ का गठन हुआ। पूरी दुनिया ‘ट्रांसजेंडर को समानता’ दो चिल्लाती रह गईं और क्षिप्रा में मिलन कर रही ‘नर्मदा ने बिना शोर किए ट्रांसजेंडर’ को समानता की ‘भीख’ नहीं ‘हक’ दे दिया। गाजे-बाजे के साथ ‘वृहन्नलाओं’ की जब शाही पेशवाई निकली तो पूरी ‘अवंतिका’ ठिठक गई। सैंकड़ों की संख्या में किन्नर गाजे-बाजे के साथ पूरे स्वाभिमान से शहर में भ्रमण करती रहीं।

 पेशवाई के इस अद्भुत नजारे के सामने हर एक नतमस्तक थे। कुछ साथियों को भ्रम था कि किन्नर अखाड़े के आगाज के बाद कई बड़े अखाड़े रुष्ट होंगे। वे भूल गए थे ‘रेवा ने क्षिप्रा’ का आलिंगन कर लिया है। और रेवा की उपस्थिति मात्र ही ‘गलत नियमों की धज्जियां’ उड़ाना है। बचपन में लगता था माँ नर्मदा से मेरा अगाध प्रेम बचपना है। रेवा की स्वतंत्रता-स्वछंदता के बाद भी निर्मलता की कहनी मात्र अन्य कथाओं की तरह मिथक है, लेकिन आज किन्नरों की शाही पेशवाई देख, लक्ष्मी नारायण की दिव्यता-भव्यता देख विश्वास हो गया माँ नर्मदा की कहानी मिथक नहीं।

 रेवा अपराजिता है, इसलिए निर्बाध बहती है। निश्चल है, इसलिए किसी से मिलती नहीं...बस प्यास बुझाती है। शिव को पिंडी बना शिव भक्तों को शक्ति की आस बंधाती है। अभी तो सिंहस्थ का शंखनाद है। शिप्रा के रेवा हो जाने से कई अनुपम घटनाओं का सृजन होगा। दिव्यता-भव्यता-स्वतंत्रता-स्वछंदता को मेरा प्रणाम....माँ नर्मदे बस इतनी ही विनती है जैसे शिप्रा से मिलकर आपने उसे रेवा कर दिया,उसी प्रकार आपमें स्नान करने वाले हर एक साधौ का मन निर्मल करना। उन्हें समझाना निर्मलता स्वतंत्र रहने पर ही जीवित रहती है। वरना रुका हुआ तालाब कब नाला बन जाए किसी को पता नहीं चलेगा। काश इस सिंहस्थ में हर कुरीती-हर रुढिवादिता की आहूती हो जाए...पूर्ण आहुती हो जाए।

  नमामी माँ नर्मदे

Sunday, May 9, 2010

मदर्स डे के बहाने- माएँ आ गई हैं !


मदर्स डे.......माँ के लिए निर्धारित एक दिन...मेरी माँ के लिए शुरू से ये दुकानदारी चलाने का दिन था। सासूँ माँ के लिए टीचर्स डे की ही तरह एक दिन जब उन्हें उनकी कुछ छात्राएँ ग्रीटिंग कार्ड देती थीं......और मेरे लिए? मैं उन बच्चों में से हूँ जिसने माँ बनने के बाद भी अपनी माँ या कहूँ कि माओं का आँचल नहीं छोड़ा। शादी के बाद एक की जगह दो माँए नसीब से मिल गईं। अब एक की जगह दो आँचल थे। मैं अपनी माँओं के बिना जिंदगी ही नहीं जी सकती। यहाँ न्यूजीलैंड में जब कोई साथी कहता है कि सही है तुम्हारें पिता और ससुर नहीं है तो तुम ही उनका सहारा हो तो हँसी आती है...मैं और माँओं का सहारा........मैंने तो आज भी उनके बिना चलना नहीं सीखा। बाहर लोगों को लगता है इंड़ीपेंडेंट हूँ वहीं मुझे लगता है मैं पूरी तरह से माँ पर डिपेंडेंट हूँ। इस बार जब दोनों माओँ को छोड़कर न्यूजीलैंड आना पड़ा तो मन बैठ गया था....माँ रूँधें कंठ से बोली थी जा अब बड़ी हो गई हैं, अब पल्लू पकड़ना छोड़ लेकिन मैं कहाँ छोड़ पाई। न्यूजीलैंड आते ही कवायद शुरू कर दी कि कैसे भी हो दोनों माँओं को न्यूजीलैंड बुलवा लूँ।


सासूँ माँ का पासपोर्ट बना हुआ था उनका झट वीजा हो जाता लेकिन माँ का तो पासपोर्ट नहीं बना था। फिर पता चला की एमए इतिहास की टॉपर माँ की वह मार्कशीट ही खो चुकी है जिसमें उनकी जन्म दिनांक दर्ज है। उपर से मैं उनसे सात समुंदर पार...कुछ करने में असमर्थ...एक लंबी कवायद के बाद माँ का पासपोर्ट बन पाया फिर उस पर वीजा का ठप्पा लगा....और छट दोनों माएँ सात समुंदर पार कर मेरे पास पहुँच गईं....और फिर आया मदर्स-डे। यहाँ विदेश में मदर्स डे...वो भी संडे के दिन। हम सब हल्की ठंड़ में रजाई ताने सो रहे थे ...इसी बीच दादी-नानी के कमरे से नन्हें आयुष की हँसने की आँवाजें आनी लगी औऱ कुछ ही पल में हँसता-खेलता आयुष मम्मा ऑख बंद करों सरप्राइज कहता हुआ स्कूल में बनाया मदर्स डे कार्ड जो उसने बड़ी मुश्किल से मेरी नजर से छिपा कर रखा था मेरे सामने कर दिया औऱ बोला हैप्पी मदर्स डे मॉम। मैं मुस्कुरा दी और दोनों माँओं की ओर देखकर कहाँ देखों माँ बच्चू का मदर्स डे शुरू । आयुष ने कहाँ मम्मी दादी-नानी का मदर्स डे कब होगा। मैं कुछ बोलती उससे पहले ही नानी बोल उठी अरे कहाँ एक दिन से हम बूढ़ों का पेट भरेगा। हमारे लिए तो हर दिन मदर्स डे है। माँ के इन शब्दों ने कॉलेज की याद दिला दी जब पहली बार मदर्स डे का बुखार हम बहनों पर चढ़ा था और पापा ने कहाँ था बेटा ये पश्चिमी चोंचले हैं अपने देश में हर दिन मदर्स डे है। बस प्यार और सम्मान से माँ के आगे सिर झुका लो हो गया मदर्स डे पूरा। आज माँ के मुख से यह पंक्तियाँ सुनकर लगा कि झट से एकबार फिर माँ के आँचल में अपना सिर छिपा लूँ।
अगली पोस्ट में माएँ और न्यूजीलैंड में जमकर धमाल

Thursday, August 6, 2009

बिन रोली हल्दी के साथ परदेस में बंधी राखी....


चार से पाँच माह बीत गए...लंबे समय से कम्प्यूटर से दूर पहले तो आँखों का ऑपरेशन...फिर बहन की शादी...इसके बाद परदेसी होना। मेरा ब्लॉग भी मेरी माँ की तरह तन्हा हो गया..

लंदन की आबोहवा के बाद भारत की गर्माहट और दो माँओं का दुलार....इसके बाद न्यूजीलैंड का सफर....घबराहट और कुछ माह के लिए माँओं से बिछुड़ने का डर मन में लिए मैं यहाँ आई थी। लेकिन सच कहूँ न्यूजीलैंड बेहद प्यारा लग रहा है। सबसे बड़ी बात है इस बार इंग्लैंड की राजधानी लंदन की तरह हम एनजेड की राजधानी वैलिंगटन में नहीं हैं। यहाँ हमारा बसेरा पामसटन नार्थ में है..शार्ट में पामी छोटा, प्यारा नैसर्गिक खूबरती से भरा शहर..

इस शहर की हैरीटोंगा स्ट्रीट पर बने मकान नंबर 17 को घर बनाते-बनाते एक महीना कहा गुजर गया पता न चला...कलैंडर पर तारीखें बीतती गईं......सावन की रिमझिम झड़ी से दूर कड़कती सर्द सुबह में राखी की गर्माहट याद आई...ध्यान आया राखी तो कुछ दिनों की दूरी पर है...राजीव और आयुष राखी का इंतजार कर रहे थे....औऱ सच कहूँ इस बार इंतजार की इंतहा हो गई। रोज ये लैटर बाक्स देखते लेकिन राखी की पोस्ट नजर नहीं आती।

बहनों ने तो पंद्रह दिन पहले ही राखी पोस्ट कर दी थी। पता तो सही लिखा होगा न...जैसे कई सवाल जेहन में आते लेकिन उपर वाले की मेहरबानी देखिए...राखी के एक दिन पहले राखी के प्यार में गुथा गांधी जी के टिकिट से सजा लिफाफा पोस्ट में इतराता, इठलाता नजर आया।

खुशी से लिफाफा खोला तो देखा बहन के खत के साथ न्यूजीलैंड की सरकार का पत्र भी है....फिर क्या बहन के खत से पहले राजीव ने सरकारी फरमान पढना मुनासिब समझा। पत्र में बेहद इज्जत के साथ बताया गया था कि लिफाफे में कुछ सीड्स थे जिन्हें सुरक्षा की दृष्टि से रोक लिया गया है। यदि हमें वे चाहिए तो बकायदा उनका टेस्ट करवाया जाए...( हेड्स ऑफ देम....इसे कहते है सुरक्षा। तभी इस देश में चोरी-चकारी और हमलों की वारदात लगभग शून्य है) । राजीव गफलत में फँस गए तब समझ में आया अक्षत और रोली रोक ली गई हैं।
अगले दिन राखी की थाली सजाई गई अक्षत की जगह यहाँ के चावल रख लिए गए लेकिन रोली कहाँ से लाए। फिर राजीव ने ही दिमाग लगाया और हल्दी को रोली की जगह इस्तेमाल किया गया। शुक्र है विदेशियों को इंडियन करी पंसद आती है इसलिए हल्दी यहाँ के सुपर स्टोर में आसानी से मिल जाती है...

इस तरह एनजेड में हमारा पहला त्योहार नेह के बंधन का त्योहार बिना बहन और बिना रोली के बाप-बेटे के प्यार में बीत गया...