उज्जैन रामघाट में कदम रखते ही अद्भुत शांति का अनुभव होता है। शांति शिप्रा के रेवा होने की। रेवा.....हमारी माँ नर्मदा......मेरी माँ नर्मदा। रेवा से मेरा नाता पुराना है। जन्म उनके शहर जबलपुर में हुआ....थोड़ी बड़ी हुई तो स्वभाव में “विद्रोह, आत्मसम्मान, लड़की होने का मान” अपने आप घुलता गया। एक पल में विनम्र तो दूसरे पल में उग्र......दादी ने कहा ‘रेवा’ है। पापा ने कहा ‘नर्मदा को कोई बांध-बांध सका है क्या’ जो इसे बांध लोगे। बहने दो निर्मल। नर्मदा के तीरे ही ‘ओशो’ का जन्म हुआ है। ओशो से पहले ‘जगत सत्यमं ब्रह्म मिथ्या’ का जाप करने वाले ‘जबाली ऋषि’ की कर्मभूमी भी नर्मदा का किनारा ही रहा है। नर्मदा जो गलत का ‘विद्रोह’ और ‘सच का साथ देने’ का ‘ताप’ पैदा करती है। बस ‘नर्मदा-रेवा’ यह नाम बार-बार सुनकर नर्मदा की पूरी कहानी कंठस्त कर ली।
माँ नर्मदा की कहानी सुन में प्रेरित होती कैसे प्रेमी के कटु वचन सुन इस अपराजिता नदी ने अपना रुख बदल लिया। आज की ‘सो कॉल्ड मार्डन’ और ‘सैल्फ डिपेंडेंट’ लड़की की तरह प्रेमी के हाथ ‘पिटी’ नहीं। ‘आत्महत्या’ जैसा ‘अविवेकी’ निर्णय नहीं लिया। फिर नानी से सुना ‘गंगा’ शिव की जटाओं में बंधकर रह गई। क्षिप्रा ने महाकाल के चरण बुहारे...लेकिन हठी-अभिमानी नर्मदा ने तो कंकर-कंकर में शंकर रच दिए। क्या यह ‘अभिमान’ था, नहीं ‘स्वाभिमान’ था। एक निर्मल कंठी का ‘स्वाभिमान-स्वाबलंबन’। फिर इस महांकुभ के सिंहस्थ की पावन बेला में जब ‘रेवा ने क्षिप्रा’ का आलिंगन किया है तो कुछ ‘अद्भुत’ तो घटित होना ही था।
जब भी लोग ‘चंडाल योग और सिहंस्थ’ की बाते करते में ‘मंद-मंद मुस्काती’...रेवा से मेरी दोस्ती अल्हड़पन से थी। भेड़ाघाट में उनका संगमरी रूप किसी भी सुंदरी के सौंदर्य का मान-मर्दन कर देता। उनका उफान अच्छे-अच्छे बांधों की धज्जियां उड़ा देता। उनका निर्मल स्वरूप कंकर-कंकर में शंकर रच देता। उस माँ नर्मदा का क्षिप्रा से अनूठा मिलन ऐसे ‘चंडाल योग’ की ‘धज्जियां उड़ाने’ के लिए काफी था। मैं तो इंतजार कर रही थी कुछ ‘अद्भुत’ होने का। कुछ ऐसा घटित होने का जो पहले कभी न हुआ हो...और आज हो भी गया।
पेशवाई के इस अद्भुत नजारे के सामने हर एक नतमस्तक थे। कुछ साथियों को भ्रम था कि किन्नर अखाड़े के आगाज के बाद कई बड़े अखाड़े रुष्ट होंगे। वे भूल गए थे ‘रेवा ने क्षिप्रा’ का आलिंगन कर लिया है। और रेवा की उपस्थिति मात्र ही ‘गलत नियमों की धज्जियां’ उड़ाना है। बचपन में लगता था माँ नर्मदा से मेरा अगाध प्रेम बचपना है। रेवा की स्वतंत्रता-स्वछंदता के बाद भी निर्मलता की कहनी मात्र अन्य कथाओं की तरह मिथक है, लेकिन आज किन्नरों की शाही पेशवाई देख, लक्ष्मी नारायण की दिव्यता-भव्यता देख विश्वास हो गया माँ नर्मदा की कहानी मिथक नहीं।
रेवा अपराजिता है, इसलिए निर्बाध बहती है। निश्चल है, इसलिए किसी से मिलती नहीं...बस प्यास बुझाती है। शिव को पिंडी बना शिव भक्तों को शक्ति की आस बंधाती है। अभी तो सिंहस्थ का शंखनाद है। शिप्रा के रेवा हो जाने से कई अनुपम घटनाओं का सृजन होगा। दिव्यता-भव्यता-स्वतंत्रता-स्वछंदता को मेरा प्रणाम....माँ नर्मदे बस इतनी ही विनती है जैसे शिप्रा से मिलकर आपने उसे रेवा कर दिया,उसी प्रकार आपमें स्नान करने वाले हर एक साधौ का मन निर्मल करना। उन्हें समझाना निर्मलता स्वतंत्र रहने पर ही जीवित रहती है। वरना रुका हुआ तालाब कब नाला बन जाए किसी को पता नहीं चलेगा। काश इस सिंहस्थ में हर कुरीती-हर रुढिवादिता की आहूती हो जाए...पूर्ण आहुती हो जाए।
नमामी माँ नर्मदे