सुनो मेरी दास्तां , समझो सियासी चालें...
दंगे में वीरान हो चुके गुलाबगंज की जो दास्तां आपको सुनाई थी...आज दिखाने जा रही हूँ। हर बार दंगों के बाद ऐसा ही होता है..कुछ मुहल्ले बेनूर होते हैं लेकिन राजनेताओँ के चेहरे से नूर टपकता है। नूर वोटों की ताजी फसल काटने का। न जाने लोकतंत्र को वोटतंत्र बना चुके इन नेताओं के सामने कब तक हम आम जन भेड़तंत्र अपनाते रहेंगे। अब इस भेड़चाल को रोककर आमजनता को जिसमें मैं भी शामिल हूँ आप भी शामिल हैं...हमें वोटो की राजनीति से उबरना होगा। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। अब देखना यह है कि इस चुनावी दंगल में हम सियासी मोहरा बनते हैं या नहीं। हम इस बार यह समझ पाते हैं या नहीं कि हर बार क्यों चुनाव से पहले ही मजहबी दंगों का तांडव खेला जाता है...