Sunday, January 11, 2009

कभी-कभी खुद को पत्रकार मानने में शर्म आती है !


आज भी याद है सन 99 की वह सुबह जब एक ख्यात अखबार में उनके जर्नलिज्म स्कूल के खुलने की बात लिखी थी...पापा को बताया कि पत्रकारिता जैसा कुछ करना चाहती हूँ। यह बात सुनते ही माँ नाराज हो गईं। उनका मानना था कि पत्रकार केवल थैला लटकाकर यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं...फिर तुम गुटका चबाने-सिगरेट फूँकने वालो के बीच काम कैसे कर पाओगी। अगर सिविलसर्विसेज देने का मूड नहीं है तो लैक्चरार बन जाओ या फिर एमबीए बहुत से प्रोफेशनल्स कोर्सेस हैं....कुछ और कर लो। पापा ने कभी कुछ करने से रोका नहीं इसलिए उन्होंने हामी भर दी हारकर माँ ने भी हाँ कर दिया।

तब से लेकर अब तक हमेशा खुद को पत्रकार मानने में बेहद गर्व होता था। हमेशा लगता था कि हम कुछ नया कर सकते हैं। एक खबर जिसके असर से किसी का भला होता था तो लगता था कि जग जीत लिया। लेकिन अब पत्रकारिता में हो रही मारामारी से शर्म आती है। कारण हम सभी नियमकानून ताक में रख सिर्फ सर्क्यूलेशन या टीआरपी के चक्कर में फँस चुके हैं। महसूस होने लगा है कि हमें खबरों से कोई वास्ता ही नहीं रहा है। कभी न्यूज चैनल भूत-प्रेत, हत्याएँ, क्राइम की खबरें बेहद लाउड तरीके से दिखाकर टीआरपी गेन करने की कोशिश करते हैं .....इलेक्ट्रानिक मीडिया तो लगता है कि शैशवकाल में ही अपने रास्ते से भटक चुका है। उसे पता ही नहीं मंजिल क्या है बस बिना लगाम के घोड़े की तरह भागा जा रहा है।

अभी गुरूवार रात एक न्यूज चैनल में चिल्लाचिल्लाकर एनकाउंटर के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे थे। मेरी दोनों माओं ने भी वह चैनल चला रखा था। दोनों भोली माएँ समझ नहीं पाईं की उसी कमरे में खेल रहे चार साल आयुष के मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। हिंसक दृश्य सबसे पहले बच्चों को प्रभावित करते हैं और अपना शिकार बनाते हैं....इस कारण हमने अभी तक गजनी भी नहीं देखी है। मैंने तो चैनल बंद करवा दिया। आयुष भी पजल खेल रहे थे इसलिए शायद टीवी पर उनका ध्यान नहीं गया लेकिन आयुष के हमउम्र दोस्त ध्रुव के घर शायद पूरा एनकाउंटर देखा गया होगा। अगली सुबह स्कूल ऑटो का इंतजार करते हुए सभी बच्चे कॉलोनी में खेल रहे थे। तभी ध्रुव ने कहा आयुष तुम चोर मैं पुलिस अब मैं तुम्हें मारूँगा...तुम पहले तनी ( तीन साल की बच्ची ) के फोरहेड पर बंदूक लगाओं और ठीक न्यूज चैनल के अंदाज में दोनों खेलने लगे। मैं सन्न रह गई। क्या सस्ती सनसनी और टीआरपी के लिए इस खबर को दिखाना जरूरी था। ये सही है कि दर्शक अकसर कोतहूलता वश ऐसे प्रोग्राम देखेते हैं, मीडियाकर्मी बीचबचाव करते हुए बोलते ही कि दर्शक या पाठक ऐसे ही प्रोग्राम देखना चाहते हैं। लेकिन खुद को प्रबुद्धों की जमात में मानने वाले लोग आखिर कर क्या कर रहे हैं?

जरा बच्चों का विजुवलाइजेशन जानिए-मैंने ध्रुव से पूछा कि आप यह खेल क्यों खेल रहे हो? किसने सिखाया?
ध्रुव- आँटी, टीवी पर देखा था...मम्मी के साथ।
आप पुलिस ही क्यों बनना चाहते हो?
ध्रुव- आंटी, चोर बनूँगा तो गोली लगेगी। फिर मुझे गिरना पड़ेगा। पेंट डर्टी हो जाएँगा, माँ डाँटेगी इसलिए पुलिस बनूँगा।
मैंने तीनों को समझाया देखों ऐसे खेल नहीं खेलते......
आयुष - मम्मा, आप भी तो टीवी में हो ना....टीवी अंकल ऐसा ही बताते हैं....अच्छा नहीं खेलूँगा मगर आप मुझे बैनटेन की घड़ी लाकर दो ( एक कार्टून सीरियल) फिर मैं बिग एनीमल बनकर फाइट करूँगा और गंदे लोगों को मारूँगा।

मैं ज्यादा समझाती उससे पहले ही उनका ऑटो आ गया......

खैर आयुष को स्कूल भेजकर हमने रुख किया दफ्तर का और दो-चार होने लगे दिनभर की खबरों से देर रात पता चला की एक पिछड़ी बस्ती में दो युवकों ने एक हिस्ट्रीशीटर बदमाश का खून कर दिया है। खबर ब्रेक कराकर कैमरापर्सन को खबर के लिए रवाना कर दिया गया। शनिवार ऑफिर पहुँचते ही देखा कि मध्यप्रदेश के लगभग हर चैनल पर एक व्यक्ति के आत्मदाह की कोशिश के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे हैं। हर चैनल चिल्ला रहा था कि एक्सक्लूजिव फुटेज है। किसी मानसिक रुप से परेशान इंसान के इस बेवकूफीभरे कदम को दिखाने की क्या जरूरत। दिखाना है तो उसकी परेशानी दिखाएँ या फिर परेशानी को हल करने में मदद करें। अभी यह खबर दिमाग में कौंध ही रही थी कि एक चैनल के रिपोर्टर का फोन आया " पता चला क्या, कल के मर्डर के किसी के पास लाइव फुटेज हैं । मैं कोशिश कर रहा हूँ, तुम भी कुछ जुगाड़ लगाओ।"

" कुछ ही देर मैं गजब ब्रेकिंग हैं। कल रात हुए मर्डर का लाइव फुटेज है। उस बस्ती के कुछ लोग इस हत्याकांड में बीचबचाव की कोशिश कर रहे थे। तब किसी ने अपने मोबाइल पर पूरे हत्याकांड को कैद कर लिया" ....यह बात सारे खबरचियों तक पहुँच गईं.....हर एक में होड़ लग गई कि सबसे पहले कौन दिखाएँगा......ड्यूटी के तहत हमने भी एसाइनमेंट को खबर दी कि ऐसी कोई बात है। बस फिर क्या था असाइनमेंट के बंधुओं के फोन पर फोन घनघनाने लगे। कुछ ही देर में हमारे एक रिपोर्टर ने फुटेज जुगाड़ लिए। फिर एक फोन मैडम, फुटेज मिल गए सबसे पहले अपने चैनल पर ही चलेगें। मैं खबर लेकर सीधे आ रहा हूँ।

इसके बाद हमने फुटेज देखें...बेहद हीनियस......दो युवक एक अन्य युवक को तलवारों से घायल कर रहे हैं। कुछ लोग बीचबचाव की कोशिश कर रहे हैं। घायल युवक यहाँ-वहाँ भागकर जान बचाने की कोशिश कर रहा है। मैंने अपने असाइनमेंट पर फिर से फोन किया- क्या यह खबर दिखाना चाहिए? जवाब आया- बिलुकल, सभी दिखाएँगें, टीआरपी का सवाल है। फिर क्या था पूरे फुटेज को कई बार दिखाया गया......इस खबर के बाद पूरी रात नींद नहीं आई। करवटे बदलते हुए सोचती रही कि क्या हम सचमुच पत्रकार हैं....सच कहूँ तो कभी-कभी खुद को आज के समय का पत्रकार मानने में शर्म आती है।