Sunday, November 30, 2008

रात अभी बाकी है.....

गहन अंधेरा है
उजास नजर आता नहीं
हर तरफ कुहासा है
क्योंकि रात अभी बाकी है....

ताज पर फिर फहरा गया तिरंगा
लेकिन जमीं पर बिखरा खून अभी बाकी है
शर्मिंदा है जमीर, माँ की नहीं कर पाया रक्षा
हर सिर है झुका क्योंकि रात अभी बाकी है....

उजाले के लग रहे हैं कयास
पर भूलों मत रात अभी बाकी है
गुस्से से भिच रही हैं मुट्ठियाँ
चढ़ रही हैं त्योरियाँ....

बच्चों की मासूम मुस्कुराहट के बीच
माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें बाकी हैं
उठो खड़े हो और लड़ों क्योंकि रात अभी बाकी है
रोशनी की चंद किरणों को समेटों और हुंकार भरो....

माँ के सपूतों उठों, दानवों से लड़ों
रुदन और क्रंदन के बीच कहो
हमने हार नहीं मानी है इसलिए कहते हैं कि
रात अभी बाकी है लेकिन भोर होने वाली है ।

(किसी ने कहा, कानों ने सुना, न जाने क्या हुआ...बस मन किया और की बोर्ड पर अंगुलियाँ चल गईं
और एक कच्ची-पक्की कविता या कहें काफिया लेकिन सच्ची भावनाएँ आकार ले गई। मनोभाव कुछ मासूमों के हैं जिनमें बहुत कांट-छांट करना मुझे गवारा नहीं लगा। )