सुनो मेरी दास्तां , समझो सियासी चालें...
दंगे में वीरान हो चुके गुलाबगंज की जो दास्तां आपको सुनाई थी...आज दिखाने जा रही हूँ। हर बार दंगों के बाद ऐसा ही होता है..कुछ मुहल्ले बेनूर होते हैं लेकिन राजनेताओँ के चेहरे से नूर टपकता है। नूर वोटों की ताजी फसल काटने का। न जाने लोकतंत्र को वोटतंत्र बना चुके इन नेताओं के सामने कब तक हम आम जन भेड़तंत्र अपनाते रहेंगे। अब इस भेड़चाल को रोककर आमजनता को जिसमें मैं भी शामिल हूँ आप भी शामिल हैं...हमें वोटो की राजनीति से उबरना होगा। मध्यप्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। अब देखना यह है कि इस चुनावी दंगल में हम सियासी मोहरा बनते हैं या नहीं। हम इस बार यह समझ पाते हैं या नहीं कि हर बार क्यों चुनाव से पहले ही मजहबी दंगों का तांडव खेला जाता है...
12 comments:
अब समय है हम अपनी अपनी शिकायत छोड़ ...इस वक़्त साथ खड़े हो....आपसे पूरा इत्तेफाक है
श्रुति जी सवाल अच्छा उठाया आपने । चित्र भी देखा । पोस्ट अच्छी लगी । अम सब यह समझते है कि राजनेता आम इंसान का फायदा उठाता है पर फिर भी उनके हर खेल में फंस जाते है ।
जी हम आपकी बातो में इत्तफाक रखते है । आपने राजनीति के उपर जो सबाल उठाये है काबिलेतारिफ है । आपकी सोच राजनीति से ऊपर उठकर है लेकिन राजनीति ने देश को किस हाल पर पहुंचा रखा है सबको मालूम है । लेकिन बात जब वोटो की आती है उस समय लोग नेताओ की मीठी वाणी में सबकुछ भूल जाते है । हमने अपने ब्लांग में कंधमाल के बारे में लिखा है । आपका स्वागत है एक बार मेरे भी खलिहान में पहुंचे । गांब याद आ जाएगा । जरूर पढे ।
kash! ye sab siyasi dalo ki bhi samaj me aata!!
आपके शब्दों से सहमती है, गन्दी राजनीति से निपटना जरा कठिन है फिर भी प्रयास होते रहना चाहिये, वह समय भी दूर नही जब इस गन्दी राजनीति की जडें कट जायेंगीं !
अच्छा सवाल उठाया आपने। लोगों को अब नये सिरे से अपने समूचे तंत्र को परखना होगा।
हमारी नियति यही है....पढ़े-लिखे सभ्य लोग यदि आज तक भी सभ्यता का पढाते-पढाते अनवरत असभ्यता भरा आचरण करते हैं और बच्चों को भी अनुचित बातें सांप्रदायिक,संकुचित विचारों का ही संप्रेषण करते हैं ....जान बुझकर ओढी हुई हमारी नादानी हमें ख़ुद के साथ अन्य लोगों को भी जीने नहीं देती .....
बुरहानपुर के दंगे हों या किसी राज्य के चुनाव। आम आदमी हमेसा धोखा काता है। लेकिन हमारे पास जनप्रतिनिधि न चुनने की छूट नहीं है न! शायद इसीलिए वे हमारी मजबूरी काफायदा उठाते हैं कोई बार ऐसा हो कि सभी मतदाता किसी को वोट न दें। जब तक उम्मीदवार सचमुच अपनी पसंद का न हो, सबको नकार दें।
(इसके बाद के विकल्पों पर ज्यादा नहीं सोचा है, लेकिन रिजेख्शन का हक हमें इस लोकतंत्र में मिलना जरूर चाहिए।)
फिर शायद अपने में से ही कोई एक या अनेक नेता चुनकर या खुद नेतृत्व के लिए आगे बढ़कर राज्य को इन राजनीतिक बेड़ियों से आज़ाद कर लें।
काश ऐसा कुछ हो!
श्रुति, क्या आप मुझे अपना ई-मेल आईडी देना पसंद करेंगी?
मेरा id आपको मेरे कैंसर पर ब्लॉग- ranuradha.blogspot.com पर मिल जाएगा, या फिर चोखेर बाली में, जहां आप पदार्पण कर चुकी हैं।:-))
कतरा कतरा शबनम गिन के क्या होगा दरियाओं की दावेदारी किया करो...
रोज़ रोज़ वही एक कोशिश जिन्दा रहने की, मरने की भी तय्यारी किया करो...
जी हम भी आपकी बातो में इत्तफाक रखते है ।
hmmmmmmmmm good post bouth aacha lagaa read ker ki
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