आज भी याद है सन 99 की वह सुबह जब एक ख्यात अखबार में उनके जर्नलिज्म स्कूल के खुलने की बात लिखी थी...पापा को बताया कि पत्रकारिता जैसा कुछ करना चाहती हूँ। यह बात सुनते ही माँ नाराज हो गईं। उनका मानना था कि पत्रकार केवल थैला लटकाकर यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं...फिर तुम गुटका चबाने-सिगरेट फूँकने वालो के बीच काम कैसे कर पाओगी। अगर सिविलसर्विसेज देने का मूड नहीं है तो लैक्चरार बन जाओ या फिर एमबीए बहुत से प्रोफेशनल्स कोर्सेस हैं....कुछ और कर लो। पापा ने कभी कुछ करने से रोका नहीं इसलिए उन्होंने हामी भर दी हारकर माँ ने भी हाँ कर दिया।
तब से लेकर अब तक हमेशा खुद को पत्रकार मानने में बेहद गर्व होता था। हमेशा लगता था कि हम कुछ नया कर सकते हैं। एक खबर जिसके असर से किसी का भला होता था तो लगता था कि जग जीत लिया। लेकिन अब पत्रकारिता में हो रही मारामारी से शर्म आती है। कारण हम सभी नियमकानून ताक में रख सिर्फ सर्क्यूलेशन या टीआरपी के चक्कर में फँस चुके हैं। महसूस होने लगा है कि हमें खबरों से कोई वास्ता ही नहीं रहा है। कभी न्यूज चैनल भूत-प्रेत, हत्याएँ, क्राइम की खबरें बेहद लाउड तरीके से दिखाकर टीआरपी गेन करने की कोशिश करते हैं .....इलेक्ट्रानिक मीडिया तो लगता है कि शैशवकाल में ही अपने रास्ते से भटक चुका है। उसे पता ही नहीं मंजिल क्या है बस बिना लगाम के घोड़े की तरह भागा जा रहा है।
अभी गुरूवार रात एक न्यूज चैनल में चिल्लाचिल्लाकर एनकाउंटर के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे थे। मेरी दोनों माओं ने भी वह चैनल चला रखा था। दोनों भोली माएँ समझ नहीं पाईं की उसी कमरे में खेल रहे चार साल आयुष के मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। हिंसक दृश्य सबसे पहले बच्चों को प्रभावित करते हैं और अपना शिकार बनाते हैं....इस कारण हमने अभी तक गजनी भी नहीं देखी है। मैंने तो चैनल बंद करवा दिया। आयुष भी पजल खेल रहे थे इसलिए शायद टीवी पर उनका ध्यान नहीं गया लेकिन आयुष के हमउम्र दोस्त ध्रुव के घर शायद पूरा एनकाउंटर देखा गया होगा। अगली सुबह स्कूल ऑटो का इंतजार करते हुए सभी बच्चे कॉलोनी में खेल रहे थे। तभी ध्रुव ने कहा आयुष तुम चोर मैं पुलिस अब मैं तुम्हें मारूँगा...तुम पहले तनी ( तीन साल की बच्ची ) के फोरहेड पर बंदूक लगाओं और ठीक न्यूज चैनल के अंदाज में दोनों खेलने लगे। मैं सन्न रह गई। क्या सस्ती सनसनी और टीआरपी के लिए इस खबर को दिखाना जरूरी था। ये सही है कि दर्शक अकसर कोतहूलता वश ऐसे प्रोग्राम देखेते हैं, मीडियाकर्मी बीचबचाव करते हुए बोलते ही कि दर्शक या पाठक ऐसे ही प्रोग्राम देखना चाहते हैं। लेकिन खुद को प्रबुद्धों की जमात में मानने वाले लोग आखिर कर क्या कर रहे हैं?
जरा बच्चों का विजुवलाइजेशन जानिए-मैंने ध्रुव से पूछा कि आप यह खेल क्यों खेल रहे हो? किसने सिखाया?
ध्रुव- आँटी, टीवी पर देखा था...मम्मी के साथ।
आप पुलिस ही क्यों बनना चाहते हो?
ध्रुव- आंटी, चोर बनूँगा तो गोली लगेगी। फिर मुझे गिरना पड़ेगा। पेंट डर्टी हो जाएँगा, माँ डाँटेगी इसलिए पुलिस बनूँगा।
मैंने तीनों को समझाया देखों ऐसे खेल नहीं खेलते......
आयुष - मम्मा, आप भी तो टीवी में हो ना....टीवी अंकल ऐसा ही बताते हैं....अच्छा नहीं खेलूँगा मगर आप मुझे बैनटेन की घड़ी लाकर दो ( एक कार्टून सीरियल) फिर मैं बिग एनीमल बनकर फाइट करूँगा और गंदे लोगों को मारूँगा।
मैं ज्यादा समझाती उससे पहले ही उनका ऑटो आ गया......खैर आयुष को स्कूल भेजकर हमने रुख किया दफ्तर का और दो-चार होने लगे दिनभर की खबरों से देर रात पता चला की एक पिछड़ी बस्ती में दो युवकों ने एक हिस्ट्रीशीटर बदमाश का खून कर दिया है। खबर ब्रेक कराकर कैमरापर्सन को खबर के लिए रवाना कर दिया गया। शनिवार ऑफिर पहुँचते ही देखा कि मध्यप्रदेश के लगभग हर चैनल पर एक व्यक्ति के आत्मदाह की कोशिश के लाइव फुटेज दिखाए जा रहे हैं। हर चैनल चिल्ला रहा था कि एक्सक्लूजिव फुटेज है। किसी मानसिक रुप से परेशान इंसान के इस बेवकूफीभरे कदम को दिखाने की क्या जरूरत। दिखाना है तो उसकी परेशानी दिखाएँ या फिर परेशानी को हल करने में मदद करें। अभी यह खबर दिमाग में कौंध ही रही थी कि एक चैनल के रिपोर्टर का फोन आया " पता चला क्या, कल के मर्डर के किसी के पास लाइव फुटेज हैं । मैं कोशिश कर रहा हूँ, तुम भी कुछ जुगाड़ लगाओ।"
" कुछ ही देर मैं गजब ब्रेकिंग हैं। कल रात हुए मर्डर का लाइव फुटेज है। उस बस्ती के कुछ लोग इस हत्याकांड में बीचबचाव की कोशिश कर रहे थे। तब किसी ने अपने मोबाइल पर पूरे हत्याकांड को कैद कर लिया" ....यह बात सारे खबरचियों तक पहुँच गईं.....हर एक में होड़ लग गई कि सबसे पहले कौन दिखाएँगा......ड्यूटी के तहत हमने भी एसाइनमेंट को खबर दी कि ऐसी कोई बात है। बस फिर क्या था असाइनमेंट के बंधुओं के फोन पर फोन घनघनाने लगे। कुछ ही देर में हमारे एक रिपोर्टर ने फुटेज जुगाड़ लिए। फिर एक फोन मैडम, फुटेज मिल गए सबसे पहले अपने चैनल पर ही चलेगें। मैं खबर लेकर सीधे आ रहा हूँ।
इसके बाद हमने फुटेज देखें...बेहद हीनियस......दो युवक एक अन्य युवक को तलवारों से घायल कर रहे हैं। कुछ लोग बीचबचाव की कोशिश कर रहे हैं। घायल युवक यहाँ-वहाँ भागकर जान बचाने की कोशिश कर रहा है। मैंने अपने असाइनमेंट पर फिर से फोन किया- क्या यह खबर दिखाना चाहिए? जवाब आया- बिलुकल, सभी दिखाएँगें, टीआरपी का सवाल है। फिर क्या था पूरे फुटेज को कई बार दिखाया गया......इस खबर के बाद पूरी रात नींद नहीं आई। करवटे बदलते हुए सोचती रही कि क्या हम सचमुच पत्रकार हैं....सच कहूँ तो कभी-कभी खुद को आज के समय का पत्रकार मानने में शर्म आती है।
29 comments:
झोला छाप डाक्टर तो होते है झोला छाप पत्रकार अब नही होते जींस वाले पत्रकार आ चुके है हमारे संपादक प्रभाष जोशी तो सुरु से धोती और कुरते में ही नज़र आते रहे है.
आज के पत्रकारों के सम्मुख कितनी खराब स्थिति बन गयी है कि जो कुछ उन्हें अपने कोर्स के दौरान सिखाया गया , उसे न मानते हुए उन्हें सर्क्यूलेशन या टीआरपी के चक्कर में फँसना पड रहा है...और बडा दुर्भाग्य देश के लिए तब होगा , जब आगे के पत्रकारिता के कोर्स में शायद छात्रों को सर्क्यूलेशन या टीआरपी बढाने से संबधित बातें भी पढनी पढेगी।
मुझे नही मालूम की किसी न्यूज़ चैनल मे भरती की प्रक्रिया मे क्या माप दंड है क्या पैमाने है ?या वाकई उसमे किसी पत्रकार को ही रखा जाता है या नही....खास तौर से मुंबई हादसों के समय मैंने उस चैनल को जिसको राजदीप सर देसाई जैसे बड़े पत्रकार चलाते है...सनसनी खेज कोवेरेज करते देखा.....कमांडो को हेलिकोप्टर से नीचे उतारते दिखाना .यदि आतंवादी बाहर आकर शूट कर देते.....तो कमांडो वही हवा मे रह जाते ...ओर बहुत सी प्रक्रिया है..मेरठ मे एक लड़की ने अपने माता पिता के कत्ल किया ओर अपने भाई पर दोषारोपण किए....अफ़सोस उसके इस झूठ को बिना तथ्य जाने एक बड़े चैनल ने एक लड़की की दुखद दास्ताँ के रूप मे पेश किया.....क्यों कोई खबरों के तथ्य जाने बगैर ब्रेकिंग न्यूज़ की हडबड़ी मे रहता है ?ऐसा ही एक मामला दिल्लीकी एक लड़की के था जिसने अपने मामा पर बलात्कार के आरोप लगाया था...मीडिया वाले फ़ौरन कैमरा लेकर खड़े हो गये ओर न्यूज़ चला दी....ख़बर झूठी थी....मामा ने आत्महत्या कर ली....कही किसी चैनल ने माफ़ी नही मांगी...ना वे मांगते ..कौन स्पष्टीकरण मांगे....अखबार मे कम से कम कही किनारे एक छोटी सी भूल याचना तो दिख जाती है....
दरअसल अब न्यूज़ न्यूज़ नही रही है....वो भी अब मनोरंजन की श्रेणी मे आ गयी है....चुटकुले ओर ज्योतिषी हर चैनल मे रहते है..रात होते ही सनसनी ओर जासूस छा जाते है ..किसी हादसे को कवर करते समय उसकी वजह से पड़ने वाले दुष्प्रभाव ....उसकी सत्यता ..उसके बाद वहां उस विषय पर चर्चा करने के लिए बुलाए गये विशेषग ...ये सब शायद न्यूज़ संपादक को तय करना होता है.... पर वे कहाँ है नही जानता .पिछले दस सालो मे दस पत्रकारों ने अपने अपने दस चैनल खोल लिए है ....
aapne jo kaha bilkul sahi hai.lakin agar aisa hai to kyun hai? aur ise kaisa badla jaa sakta hai wo bhi to aap logo ko he sochna hoga....
न्यूज़ भी अब किसी सस्पेंस सीरियल की तरह हैं ..जैसे हर बदलाव की उम्मीद है वैसे इसकी भी है आगे के रंग आता है यह तो ख़ुद अभी न्यूज़ चेनल वाले भी नही जानते होंगे
mai ranjana ki baat se sahmat hu.....waise halaat kharab hai....kya kiya ja sakta hai....
mai bhi patarkaar hu......
आपने बिलकुल वही बयां किया, श्रुति जी, जिस स्टोरी की बात कर रही हैं, मैं उसी चैनल में काम करता हूं. आपका दर्द सभी पत्रकार समझते हैं लेकिन मालिकों के हुक्म के आगे सब बेबस हैं. क्योंकि मालिक बस टीआरपी चाहता है। ये भी आप खूब समझती होंगी। हम सब एक मजबूर जिंदगी जी रहे हैं, जिसमें हमारे चाहने से कुछ नहीं होता, समाज की बागडोर किसी और के हाथों में है, हम तो बस कठपुतलियां हैं। खैर, आपके जैसे ख्यालात के लोगों से ही कुछ उम्मीद है।
कल एक कार्यक्रम में कुछ इसी विषय पर दो पत्रकारों ने अपनी बात रखी। उसमें वर्तिका जी ने एक वाक्या का जिक्र किया। कि एक बार एक खबर आई कि कई टन लकडियों में आग लग गई। और खबर चला दी गई कि कई टन लडकियों आग में जल गई। बाद में जब गलती का पता तो जिसने गलती की थी उसको बुलाया गया तो उसने पता है क्या कहा "सो वाट।" मेरे कहने का अर्थ है कि आज के समय पत्रकार(सभी नही)और मालिक को बस पैसा चाहिए पैसा बाकी सब जाए भाड में।
दो एक महीने से मेरे यहाँ बैठक ही खत्म हो गई। एक चैनल विशेष पर समाचार सुन लिया करते थे सब इकटठा बैठ कर और अब वो चैनल नही आता क्योंकि केबल वालो के पास उस चैनल वालो ने पैसा नही भेजा। तो उसने प्रसारण बंद कर दिया उस चैनल का। बाकी न्यूज चैनल पर घर वाले समाचार देखना ही नही चाहते। यह भी एक सच्चाई है।
बहुत सही कहा आपने.....हमने तो राष्ट्रीय न्योज चैनल देखना ही छोड़ दिया है .रीजनल न्यूज चैनलों में अभी तक स्थिति उतनी ख़राब नही हुई सो ,उनके समाचार ही देख लिया करते हैं.
हताशा, क्रोध, दया और हंसी ,सब आता है इनपर .पर यह शुभ संकेत है कि एक पत्रकार भी आमजनों की तरह ही मायूस है. क्योंकि इस स्थिति में बदलाव भी पत्रकार ही ला सकता है.
पत्रकारिता बाज़ार है , मिशन नही और आप उसका हिस्सा है ,
ये सबको पता है। discuss करने का समय गया। पत्रकारों से पुछिये वो पेट की दुहाई देंगें जो सही भी है। लेकिन आम जनता क्या कर रही है, चट्कारे लेकर सुनते भी हैं और गाली भी देते हैं। दोहरापन हमारी खून में आ चुका है। परिवार नही खो सकते लेकिन आतंकवादियों को क्यों छोड दिया!! PM के घर के सामने हम ही धरने पर बैठे थे, याद कीजिये एक भी मिडिया हाउस नही था जिसने कहा मत छोडो।
जैसा कि कुछ लोगों ने कहा, इनको देख्नना बंद करो। रास्ते पर आ जायेगें। आखिर इन्हें पेट जो पालना है।
Shruti jee apun ka hisaab se…..
“Aapko apne peshe par sharm hai” iska aapko abhimaan hona chahiye kyunki besharmon ki iss bhir me jiwit antahkaran waale log gine-chune hi hain.
Janm se muh ke ched ko bharte rehne ke baawajood manushya use aamaran nahi bhar paata.Ek terah ki bhookh mita-ti hai to tin tarah ki lag jaati hai.Isiliye aaj hum har peshe me dhandhapan dekh rehe hain hai.Sabhi laashon par roti seinkne me joote hain.
Samaaj kaa aayinaa kaha jaane waala media sawedanhin aur nishthur maruasthal ka maricheeka ban chuka hai jo desh ki abodh janta ko dishagyan karane ke bajaye dishawihin karta jaa reha hai.Khabaron kaa mulya dhoondhte dhoondhte inhone patrakaarita kaa mulya giraa diya hai.
Patrakaaritaa ke dharm aur apni aatma bech kar sidhe-saade logon ko sansani,andhwishwaas aur dramon kaa nasha khilaa apni dukaan chalaane waale patrakaarita ke weshya log is patan kaa dosh bhi janata ke sir par hi marh rehe hain.Inke dhandhe se ek do satkarm ke byproduct bhale hi nikal jayen par inke krityon ne sadak se sansad tak sabhi ko asahansheel bana diya hai.
Ye baat sahi hai ki mumbai humlon ke dauran hua prasaran wishwa ko aatankwaad ki gambheerta ,uske badroop aur bahashi chehre se parichit karaya aur uske khilaaf janaakrosh ko jagaakar ekjoot kiya jiskaa faayada bhaarat ko sahaanubhooti ke roop me bhi mila.Par “aatankwaad ke joothan” ko lokne ke liye jaisi cheena-jhapti,maara-maari ho rehi thi sharmindagi mahsoos kara rehi thi.
“falaan channel humaari footage ko lagataar churaakar dikhaa reha haii…..hum use chetawani dete hain ki ise band kare warna kanoooni…..”……”nariman house kaa encounter sabse pehle …humaare channel par”
Goli khaakar khud ke andar nihit beta,bhai,baap aur pati ko maatribhoomi ke liye hom kar dene waale sainikon se koochh sikhkar media do paison ke bikaaupan kaa balidaan kyu nahi deta?
TRP ke liye nochaa-nochi karne aur twarit hone ki hod me bin wiwechana kiye kachhe-pakke khabaron ko parostey ye khabarmachine janata ko bhramit kar dete hain aur kon saa sach sach hai aur kon saa sach jhoot pata hi nahi chalta.
Ab to parde ke peeche hone waale gathjod se media paaltoo bhi hotaa jaa reha hai..Is bhrastataantrik desh me jahan rajneeti,corporate aur ufsarshaahi ke saare stambh khokhle ho chuke hai media ko bahar se sudhaarne waala shayad hi koi ho isiliye sudhaar ke bayar iske andar se hi footenge jo ise aatmbodh karayenge.
बातों से नहीं होती बगावत कभी...
उठा पत्थर, खड़े-खड़े हाथ क्यों मलता है।
सुन्दर आलेख
आपके मकर संक्रन्ति पर्व की बहुत बहुत शुभ कामनाऍं
आपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!
sahi jagah par vaar kiya hai aapne, lekin sochane ki baat yah hai ki kya news paper ya news chanel kisi patrkaar ka hai. ye sab sethon ka buisnis ban gaya hai or aap or hum jaise patrkaar inke yahaan majdoor hain jo malik ka hukm bajlate hain. aap dekhati bhi hongi jis patrkaar ke ek phone par cm ya phir pm doda doda uske ghar aajaye vahi patrkaar malik ke aage haath band kar khada hota hai or jee ke alava kuchh nahi kahta. aise main aapne itana sochha bahut achha laga. aap patrkaar hone ke saath saath insaan bhi bani huyee hain abhi tak varna to patrkaron ki(adhikatr) insaaniyat kab ki mar chuki hai, byline ya breaking news ke chakkar main pata nahi kitani baar ve insaaniyat ke usool break karte hain.
is jajbe ko bacha kr rakhiyega. ye kaiyon ke liye prerna banega.
आप हैं कहां? मुझे आपसे बात करनी है
Sahi keh rahi hai Shruti aap, ab vakyee sharm aati hai.
प्रिय श्रुति पत्रकारिता अब मिशन रही कहाँ ...बढे -बढे अखबार से लेकर न्यूज़ चेनल मैं ऐसे ऐसे कार नामे देखे गए हैं की लिखो तो ..अपनी ही बेइज्जती है,मालिकों नामी गिरामी पत्रकारों का बोलबाला है ...मनमानी है ...समझ मैं आए तो करो काम वरना आउट...महिला पत्रकार होने का खामियाजा अलग भुगतो...समाज के लिए उनकी कोई जिम्मे दारी ही नही..हरी कथा अनंता की तरह...कितनी तो कमिया हो गई है इस पेशे मैं...गिनना आसान नही..उपभोक्ता संस्कृति ,बाजारवाद और भी दूसरे दवाब...बढे अखबार मैं भोपाल से ही जो निकलता है वहाँ के हालात जा कर देखो ,ये जो छोटीछोटी aनुभव हीन बालिकाएं रख ली जाती हैं ...क्या जानती हो इनके बारें मैं ...मालिको और सीनियर के बल बूते...थोडा बहुत पत्रकारिता और नाम हो जाता है ...और थोबडा ठीक ठाक हुआ तो सोने पे सुहागा...दस-पाँच मेहनत के बल आगे आने का प्रयास करती हें साथी ही टांग खीचने में लग जाते हें अब नौकरी बचाओ या समाज को देखो अपने सिद्धांत औरस्वाभिमान को देखे या समाज का भला सोचें .....तुम्ही सोचों ....
Jab maine patrakarita ki padhai ki thi tab main bade josh me tha. Jugad se ek national news channel me 6 mahine kam karne ka mauka mila. Ab main LIC me naukri karta hu aur baut khush hu ki mujhe roz kalatmak bhasha me sakht chutiyape ki baate nahi likhni padti.
Ganga apne antim saans tak malintaa grahan kar sabko paawan karti hai.Ab laharen hi samaajik malintaa rupi awarodhon se ghabraakar kinaara kar lein to koi swaksh,sheetal aur swachhand prawaahon ki ummeed kaise kare?
आपकी चिंता जायज है।
sahi kaha
मेरे मन की बातें...
बीते कुछ वर्षों से मुझे भी इस पेशे में होने का अफ़सोस होने लगा है।
hum sabhi samasyaon par hi charcha karte hain ...........uske hal par nahi.Agli bar kisi natije par jaroor pahunchiyega ki kya hona chahiye.
Navnit Nirav
बहुत सटीक प्रिश्न उठाये हैं आपने. मीडिया में भी हम और आप ही हैं न? चाहे हिंस्र दृश्य हों या फूहड़ हास्य हो, भारत में बालमन पर उसके प्रभाव का ख्याल किये बिना मीडिया में ही नहीं आम जीवन में भी यह सब खुलेआम चलता है. पत्रकारिता में आत्मावलोकन की जितनी ज़रुरत है उतनी ही ज़रुरत आम गृहस्थों को बाल-मनोविज्ञान की मामूली शिक्षा देने की भी है.
इन्ही बातों के कारण मीडिया पर अकुश लगाने की बात होती है . फिर ये भी कहा जाता है स्व नियंत्रण होना चाहिए . जहाँ टीआरपी वहां ये कैसे संभव है . बेहतरी इसी मे है दर्शक स्व नियंत्रण रखें .
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taklif hoti hai apne aap ko patrakar batane me haalat wakai khrab ho gyi hai
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