" क्या मिलेगी नारी को अपनी ही देह से मुक्ति "फिर एक साल बदल गया......कलैंडर में 2008 की जगह अब 2009 चस्पा नजर आता है लेकिन क्या स्थितियाँ बदलेंगी। खासकर महिलाओं के लिए.....क्या उन्हे मुक्ति मिलेगी अपने ही देह के जाल से। क्या उन्हें सुंदर देह की कठपुतली और भोग्या से बढ़कर कुछ और भी माना जाएगा। इस बार नए साल की शुरूआत नानी के गाँव से की। कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पहले ददिहाल जबलपुर गई उसके पास ही एक गाँव है फुलारा.......वहाँ मेरा प्यारा ननिहाल है। यह गाँव काफी छोटा और शोर-शराबे से दूर लगता था लेकिन बीते पाँच सालों ने गाँव की रंगत बदल दी है. अब गाँव के कच्चे घरों की छप्पर पर भी डिश टीवी तैनात दिखता है।
मामा ने भी हमारी छत पर उसे लटका रखा है लेकिन बिजली विभाग की दया से वहाँ दस से बारह घंटे की बिजली नदारत थी सो गाँव का सुकून महसूस हुआ। बुद्धू बक्से के मुँह पर ताले जड़े रहे। कड़ाके की ठंड थी सो बचपन की तरह पंखे की कमी भी नहीं खली। बल्कि दीनदुनिया से दूर नानी का घर साथ में चिपके खेत अजीब सा सुकून दे रहे थे। इसी सुकून के बीच धूप सेंकते हुए तुरंत तोड़ी हुई गदराई बिही (अमरूद) का स्वाद उठाते हुए नाना जी की लाइब्रेरी की याद आई। आनन-फानन में लकड़ी की अटारी(एक कमरे का नाम) पर जाकर नाना की लाइब्रेरी खंगालने लगी। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पढ़े मेरे नाना को पढ़ने का खासा शौक था..उन्हीं के साथ मैंने अपनी जिंदगी का सबसे पहला हिंदी का उपन्यास चंद्रकांता संतती पढ़ा था। हाई स्कूल में शिवानी से परिचय भी गाँव में ही हुआ। आचार्य रजनीश से लेकर विवेकानंद तक मैंने कई उपन्यास और किताबे नाना की लाइब्रेरी से निकाल कर पढ़े.....लेकिन जाने क्या बात थी कि आचार्य चतुर्सेन के उपन्यास वैशाली की नगरवधू को नाना ने पढ़ने न दिया। तब मैं हाईस्कूल में थी जब नाना ने मेरे हाथों से छीनकर उस उपन्यास को अटारी पर रख दिया।
उसके बाद कई बार रेलवे स्टेशन पर मुझे यह किताब नजर आईं लेकिन जिद्द थी जो नाना पढ़ सकते हैं मैं क्यों नहीं । मैं तो नाना से लेकर ही पढ़ूगी........आज जब नाना नहीं थे तब उनकी लाइब्रेरी में ये किताब बड़ी जतन से रखी दिखाई दी। नानी से प्यार से कहा- आखरी बखत में तेरे नाना किताबें संभाल रहे थे ....जिल्द चढ़ा रहे थे ....कह रहे थे मोनू आए तो दे देना बाकि सब को तो हैरी पॉटर से ही प्यार है। कौन पढ़ेगा इन्हें। लाइब्रेरी में सबसे आगे रखे उपन्यास को महसूस हुआ "नानू खुद कह रहे थे अब नहीं रोकूँगा जा पढ़ ले।"
फिर क्या था ..गुनगुनी धूप में नाना की आरामकुर्सी रखी और रात तक उपन्यास से ही चिपकी रही.। जब तक नानी की मीठी डाँट "अरी बिटुरी तनिक हमारे पास भी बैठ जा कल तो जाना है कि रट शुरू कर देगी ".के बाद याद आया कि रात हो चुकी है। खाना खाकर बिजली विभाग को जमकर कोसा। नानी से तनिक देर बतियाने के बाद अंधेरे में चिमनी जलाकर किताब जारी रही। अगले दिन सुबह इनोवा के सफर में भी अम्बपाली मेरी हमसफर बनी........रस्ता कैसे कट गया पता नहीं चला......अम्बपाली एक मासूम बच्ची जिसकी मासूम इच्छाएँ थीं से लेकर एक खूबसूरत देह की युवती एक गौरवमयी युवती जिसे जबरदस्ती नगरवधू बनाया गया।
उसके बाद जब वह साध्वी बनी तब भी बौद्धों ने भी कहा कि " अब नारी ने बौद्ध धर्म में प्रवेश ले लिया है यह न बचेगा" अर्थात बुद्ध और उनके अनुयायी भी मानते थे कि आम व्यक्ति संत बनने के बाद भी नारी को देह ही मानेगा। नारी के देह की गमक सन्यासी के ब्रह्मचर्य को तोड़ सकती है। इसी उपन्यास में एक और किरदार था कुडली विषकन्या अपनी सुंदर देह का भार ढ़ोती एक और स्त्री। अम्बपाली के बारे में जितना सोचती मन कड़वा होता जाता। महसूस होता कि यह किरदार यदि वास्तव में जीवित होता तो अपनी देहभार के नीचे दबी यह गरिमामयी महिला शायद हर रात एक नई मौत मरता। शाम होते-होते हम जबलपुर पहुँच गए। बहनों ने बड़े चाँव से फैशन लगाई। अपनी कमाई से खरीदें एलसीडी टीवी का रिज्योलूशन दिखाने का उत्साह था...इसी उत्साह में माँ और मैं अपनी थकान भूल गर्म रजाई में घुस फिल्म देखने लगे.........लेकिन जैसे-जैसे प्रियंका चौपड़ा, कंगना रणावत का किरदार आकार लेता जा रहा था वैसे-वैसे मुझे उस किरदार में अम्बपाली नजर आने लगी। लगा हर एक के दिमाग में नारी की देह ही कसमसा रही है। हर जगह जहाँ दिमाग और विद्वत्ता की बात आती है और महिला भारी नजर आती है तो उसके इस दिमाग को उसी की देह के नीचे कुचलने की कोशिशे की जाती हैं। आखिर क्यों?
क्या इस नए साल में नारी को स्वयं उसकी देह से मुक्ति मिल पाएँगी। हमें एक संपूर्ण व्यक्तित्व की तरह सराहा जाएगा। या फिर कोमल भावनाओं की पूँजी नारी भी पुरष की तरह देह को प्रमुखता देने लगेगी.......या देने लगी है तभी तो संजय दत्त, सलमान खान, जॉन अब्राहम के बाद शाहरूख खान और आमिर खान भी अपनी सिक्स और एट पैक देह का प्रदर्शन करते नजर आ रहे हैं......इस साल क्या होगा। मैं तो चाहती हूँ नारी को अपनी ही देह से मुक्ति मिल जाएँ और वो ऊँचे आकाश में उड़े लेकिन यह उड़ान विचारों की हो।
20 comments:
bilkul sahi likha hai. zyadatar nariyan aaj apne ko khud sharir ke dam par aage badhana chahati hai. kyon use samajh nahi aata ki reception ki job ke advertisement mein female likha hota hai kyon use ye nahi samajh aata ki ye naukri me paise muskurahat(bhale majboori me hi kabhi kabhi) aur deh ka hai. mere hisab se ye bhi deh vyapar ka ek tarika hai aur nari jab tak apni mansik kabliyat ke dam par aage nahi badehgi wo shoshit hogi. use women empoerment ke asli arth ko samajhna hoga.... ai kash ye ho.
ise hi padhe. indianvisha.blogspot.com
सही कहा आपने श्रुति .यह किताब मैंने भी पढ़ी है ..उड़ान अब विचारों की होनी चाहिए
विशाल जी, माफ कीजिएगा आप मेरी पोस्ट की भावनाओं को समझ नहीं पाए हैं। मेरी पोस्ट की भावना यह है कि नारी कितनी भी विदुषी क्यों न हो उसे हमेशा शरीर के मापदंड पर ही तौलने की कोशिश की जाती है। ये समाज की कुछ महिलाओं की नहीं बल्कि हर महिला की स्थिति को बयां कर रही है। किशोरी से लेकर एक प्रौढ़ महिला की स्थिति है जिसे फब्तियों या सीटिंयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि लोगों की नजर में वह बच्ची न रहकर देह बन जाती है। उसके बाद वह सभी को सिर्फ नारी, एक खूबसूरत देह ही नजर आती है। आप पुरूष है समझ नहीं पाएँगे कि एक स्त्री को अपनी देह को घिनौनी आँखों से बचाने के लिए कितने यत्न करने पड़ते हैं। आप अम्बपाली की भावनाओं को तब तक नहीं महसूस नहीं कर सकते जब तक उसे पढ़े ना। मेरी पोस्ट का अर्थ यह है कि नारी को उसकी देह के उपर समझे और हाँ मैं तरक्की के लिए अपनी देह को साधन मानने वाली चंद युवतियों की नहीं बल्कि आधी आबादी का हिस्सा हर एक नारी की बात कर रही हूँ जो चाहती हैं कि उसके पूरे व्यक्तित्व की स्वीकारोक्ति और गरिमामय सम्मान।
चंद उदाहरण नहीं चाहिए। हर महिला का गौरवमान चाहिए...हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को मान-सम्मान चाहिए।
लुच्चों की बात मैं नही कर रहा, लेकिन हरेक मर्द औरत को गन्दी निगाहों से देखता है, मैं नहीं मानता|
"उसे हमेशा शरीर के मापदंड पर ही तौलने की कोशिश की जाती है।" ये तो बिल्कुल ही ग़लत है, कम से कम मैं जहाँ काम करता हूँ वहां ऐसा कुछ नहीं है| कभी कभी हो सकता है, हमेशा तो कभी नहीं|
आजकल स्थिति में सुधार हो रहा है, लेकिन जितनी स्थिति सुधरती है उससे जादा विज्ञापन, फिल्में बिगाड़ देती हैं| पुरे नारी जगत को एक साथ खड़ा होना होगा, कि उन्हें भोग की वास्तु बनाया जा रहा है, और वो खुशी खुशी बन रहीं हैं|
नारी मुक्ति आन्दोलन का समाज पे इतना प्रभाव है।
कि जन्म से पहले ही मुक्ति का प्रस्ताव है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
वैसे स्थितियों में बदलाव आया है, सुधार आया है. बेहतर भविष्य हो, यही कामना की जा सकती है.
shruti ji sadar namaskar apki post ko pada aur bahut haad tak aap se sehmat bhi hoon . vaishali ki nagar vadhu ke bare mein sun rakha tha par padha nahi , ab jaroor padunga. regards .
shruti ji sadar namaskar apki post ko pada aur bahut haad tak aap se sehmat bhi hoon . vaishali ki nagar vadhu ke bare mein sun rakha tha par padha nahi , ab jaroor padunga. regards .
बात आज की नहीं है और न ही केवल नारी के प्रति नर का आकर्षण है । यह सनातन सत्य है कि पुरुष नारी के प्रति और नारी पुरुष के प्रति आकर्षित होती है । इस आकर्षण को अभिव्यक्त करने का तरीका किसी का गंदा होता है तो किसी का सौम्य । वैसे सामान्यतया भारतवर्ष में नारी के प्रति श्रद्धा का भाव ही पाया जाता है । जहाँ तक नारी को देह के रुप में देखने की बात है, तो इसके लिए बहुत हद तक नारी खुद जिम्मेवार है । आप उनके पहनावे की बात क्यों नहीं करते, अपनी देह दिखाती भी तो खुद नारी ही है । विज़ापनो को देखकर शर्म भी शर्मसार हो जाये, रैम्प पर जानबूझकर अधोवस्त्र भी गिराती भी तो नारी ही है । वैशाली की नगरवधू मैने भी पढ़ी है । पुरूषों को कटघरे में खड़ा करने के पहले नारी अपने को देह के रुप में परोसना तो छोड़े ।
प्रिय श्रुति ..तुमने बेहद सटीक विषय ठीक समय पर उठाया है ....बचपन मैं मां ने मुझे भी चतुरसेन की गोली आम्रपाली और कई उपन्यास पढने को दिए थे ...मैं तुम्हारे किसी भी सवाल का जवाब दिए बगेर इतना ही कहना चाहूंगी ..फिल्मों मैं जिस औरत को और उसके जिस पहनावे को ,और टीवी मैं भी दिखाया जाता है ....क्या हिन्दुस्तानी आम औरत वैसी होती है ...वो क्या करती है ये तो बाद मैं बात उठेगी...और जिस चरित्र को जीती है ...चाहे वो एक्टिंग ही सही ...सोना ,उठना, चुम्बन,नंगीं टांगों -जिस्म का प्रदर्शन,कौन रोकेगा इन्हे ...यहीं आकर सारे मर्द एक जुट हो जातें है और खिलाफत करने वाली औरतें १६ सदी की औरतें करार दी जाती हैं ,क्या ऑफिस क्या घर इन औरतों के कारण सामान्य वो औरतें भी जिल्लत का सामना कर रही हैं जिनका इन से कोई सरोकार ही नही ...एक मनोवेइग्यानिक दवाब उन पर भी है ,,,खेर फिर कभी ...तुम पोस्ट पर नही आती हो तो सूनापन महसूस होता है
श्रुति जी इतना तो तय हो गया कि आप भी अच्छी लेखिका के साथ साथ एक अच्छी पाठक भी हैं ,यदि ऐसा नही होता तो तो आप पुस्तको को नानी के घर में खंगालती नहीं .
अच्छा है यदि आप दुबारा जबलपुर आए तो तो जबलपुर के ही परसाई, ओशो, आचार्य महेश योगी जैसे महापुरुषों के स्थान और साहित्य के अलावा आज भी उनके साथ रहने वाले लोग अभी भी जिन्दा हैं , आप उन सब से मिल कर उनसे संस्मरण सुन कर हतप्रभ रह जायेंगी
आपका आलेख अच्छा लगा
- विजय
wah wah
बहुत बढ़िया भाभिव्यक्ति . . आज प्रथम बार आपका ब्लॉग देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और सबसे जादा खुशी इस बात की हुई है कि आप जबलपुर से है .
महेंद्र मिश्रा
जबलपुर.
Shruti jee apun to “waishaali ki nagarwadhu” nai padela hai par premchand ka “sewa sadan” kuch kuch aisaich bolta hai lagta hain.
Apun ke hisaab se ye baat to sach hai ki purush apne durbal aatm niyantran kshamata kaa dosh bhi naari ke matthe madhne ki koshish karte hain.Tabhi to “sanyashiyon kaa pilpila brahmcharya itna taral ho jaata hai ki naari ko dekhkar bharbhara jaata hai aur dharm itna sankuchit ho jaata hai ki paap se pryaschit ki or prawaahit hone waale wyakti usme samayojit naa ho sakein”.Weshyaon ko neecha dikhakar khud ko sreshth saabit karne waale samaj par dhikkar hai.Adhikaanstah weshya naari ke kokh se nahi balki mazboori ke kokh se paida hoti hain aur apne saath muh kaala karne waale kaamonmatt samaaj ke hisse ki bhi kaalikh apne muh par lapetne kaa mahakarya karti hai.Usi prakaar filmo me nagnta parosne waala jitna doshi hai utnaa hi doshi aankh sekne waala samaaj hai.
Ye yatharth hai ki stri ke prati aakarshan purushon ki antarjaat prawritti hai .Par itni si nipunata to jungli pashuon me bhi hoti hai jinka uddeshya maatr bhojan aur prajanan hota hai.Kaha jaata hai ki manushya ek samaajik pashu hi hai .Isiliye kabhi kabhaar kuch purushon ki paashwik antahprawritti ablaaon(shaaririk drishti se) ke prati jyada prabal ho jaati hai aur wo naari ko bhogyawastu samajhne lagte hain.Aishe me wo naari ke wednaon –sanwednaon ka mardan kar daalte hai.
Prithvi ki aadhi-aadhi naari aur purush aabadi me ek pratishpardha hona koi buri baat nahi hai par shreshthata aur abhimaan ki ladai nahi honi chahiye,in dono ke bich chitput khichtaan jaroor ho jaye koi wishwayuddh hone kaa khatra nahi hai kyuki ye apni gaddi ek doosre ke bina chalaa hi nahi sakte.Khair pashutaa se parey hokar manushya jaati ko sabhyata aur wikaas ki patri par chalte rehnaa hai to purush aur naari ko ek duje ki yogyataa aur bhawnaaon ki kadar karni hi hogi….Paarasparik wednaon aur aawshyaktaaon ko samajhnaa hi hoga.
“Shyamal”,”rajneesh” ,”vidhu” aapke kathan “Shashwat” hain!
बहुत अच्छा लिखा। वैशाली की नगरवधु का हवाला अक्सर उन लोगों को देता हूं जो कहते है कि कुछ सुझाइये, क्या पढ़े...
चतुरसेन शास्त्री मेरे प्रिय लेखक हैं। इन पर फिर कभी बात होगी। हां, इनका 'गोली'उपन्यास न पढ़ा हो तो ज़रूर पढ़ें।
शुभकामनाएं...
... समय बदल गया है कुछ देह छिपाने का प्रयास करती हैं और कुछ देह के प्रदर्शन के प्रयास मे लगी रहती हैं, वर्तमान मे लडकियाँ ऎसे वस्त्र धारण करने लगी हैं कि उनके हर अंग पर नजर न चाहते हुए भी स्वत: पहुँच जाती है, देह से मुक्ति आखिर क्यों?
... प्रसंशनीय लेख है।
jahan tak mai samajhtaa hoon stri ko uske udaan me uski kayaa ko baadhak ke roop me pesh karne waale kaarakon se mukti chahiye .
purush pradhaan samaaj me use bhay aur adhintaa ke wajan taale dabi hui bojhil jindagi se mukti chayhie.
maa-baap,bhai-bahan ko dekhte samay drishti me jo samman aur maryaada hoti hai ,sabon ko dekhte samay widhyamaan honi chahiye.
good painting...
U r right
नारी अपने हर स्वरूप में आदरणीय है, आज नारी की स्थिति जो भी है उसमें किसका अधिक योगदान है, इस पुरुष प्रधान समाज में यह लेखा जोखा तो बाद में लिया जाए; इस स्थिति में तभी सुधार संभव है जब दोनों साथ कदम बढ़ाए.
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